पठानकोट में हुए आतंकी हमले के तार पाकिस्तान से जुड़े होने का अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। देश की खुफिया एजेंसियों की पड़ताल में भी यही बात उभर कर आई है। खुफिया एजेंसियों का दावा है कि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अजहर और उसका भाई अब्दुल भाई रऊफ असगर उन चार दहशतगर्दों में शामिल हैं जिन्होंने आतंकवादी हमले की साजिश रची। इस खुलासे ने जहां एक और आतंकवादी घटना की याद ताजा कर दी है, वहीं दोनों तरफ के विदेश सचिवों की प्रस्तावित बैठक पर सवालिया निशान भी लगा दिया है। रऊफ 1999 में काठमांडो में एअर इंडिया के विमान के अपहरण का षड्यंत्रकर्ता था जिसे बाद में अफगानिस्तान के कंधार ले जाया गया। इस अपहरण से आठ दिन चला संकट बंधक बनाए गए मुसाफिरों और चालक दल के सदस्यों को छोड़ने के बदले मसूद अजहर सहित तीन आतंकवादियों की रिहाई के साथ खत्म हुआ था। विमान के अपहर्ताओं से उस वक्त हुए समझौते को लेकर दो राय रही है। कुछ लोगों की निगाह में इससे तत्कालीन सरकार की कमजोरी जाहिर हुई थी, वहीं कुछ लोग उसे मात्र परिस्थितिजन्य विवशता मानते हैं। पर मसूद अजहर और उसके साथियों को छोड़े जाने की कीमत भारत आज भी चुका रहा है। पठानकोट कांड के तार जैश-ए-मोहम्मद के रूप में पाकिस्तान से जुड़े होने के तथ्य भारत ने पाकिस्तान को सौंप दिए हैं। पर इसी के साथ मोदी सरकार के सामने यह दुविधा भी खड़ी हो गई है कि वह पाकिस्तान से बातचीतके फैसले को कायम रखे या उसे मुल्तवी कर दे। दोनों तरफ के विदेश सचिवों की बैठक पंद्रह-सोलह जनवरी को इस्लामाबाद में संभावित है, जिसमें ‘व्यापक द्विपक्षीय वार्ता’ के अगले छह महीने के एजेंडे और वार्ता के तौर-तरीकों पर विचार होना है। लेकिन भारत की प्रतिक्रिया ने एक तरह से बैठक के आयोजन को सशर्त बना दिया है।
गुरुवार को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि विदेश सचिवों की बैठक का होना इस पर निर्भर करेगा कि पठानकोट की बाबत पाकिस्तान त्वरित कार्रवाई करता है या नहीं। यों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत को त्वरित कार्रवाई का भरोसा दिलाया है और इस बारे में अपने आला अफसरों की बैठक भी की है। लेकिन क्या सेना का भी यही रुख होगा? दुनिया जानती है कि रणनीतिक मामलों में पाकिस्तान की सरकार से ज्यादा वहां की फौज की चलती है। 2008 में मुंबई हमले के बाद भारत से मिले सबूतों के बारे में पाकिस्तान ने कई दफा कहा था कि ये आधी-अधूरी सूचनाएं हैं, कार्रवाई के लिए पक्की सूचनाएं चाहिए जो अदालत में सबूत के तौर पर टिक सकें। अगर उसी तरह की बहानेबाजी फिर सुनाई दे तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। लेकिन तब मोदी सरकार क्या करेगी? क्या विदेश सचिवों की बैठक रद्द कर दी जाएगी, जैसा कि अगस्त 2014 में हुआ था, या हाल में प्रधानमंत्री की संक्षिप्त पाकिस्तान यात्रा के दौरान हुई पहल को आगे बढ़ाने की गुंजाइश निकाली जाएगी? यह सवाल अभी अनुत्तरित है। वार्ता के भविष्य को लेकर अनिश्चितता का आलम है। गेंद फिलहाल पाकिस्तान के पाले में है। भारतीय जनता पार्टी और खुद मोदी पाकिस्तान-विरोध का कार्ड खेलते आए हैं। लिहाजा, पाकिस्तान की ओर से सकारात्मक और त्वरित कार्रवाई के बगैर वार्ता का नया दौर शुरू करना मोदी के लिए राजनीतिक रूप से आसान नहीं होगा।