हालांकि दिल्ली में वायु प्रदूषण कोई नई बात नहीं है, बरसों से यह समस्या बनी रही है, मगर अब तो हाल यह है कि रह-रह कर दिल्ली की हवा में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच जा रहा है। इसकी गवाही वायु गुणवत्ता मापने वाले उपकरणों से भी मिलती है और लोगों के रोजमर्रा के अनुभवों से भी। दिल्ली जैसा ही हाल इससे सटे नोएडा और गाजियाबाद का भी है। हवा में बारीक धूलकणों (पीएम 2.5) की मात्रा तीन सौ माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर तक पहुंच जाए, तो इसे आपात स्थिति मानते हैं। इसी तरह आपात स्थिति तब भी मानी जाती है जब मोटे धूलकणों (पीएम 10) की मात्रा पांच सौ माइकोग्राम प्रति घनमीटर पहुंच जाए। गुरुवार को दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 320.9 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज की गई, जो कि आपात स्थिति के मानक से कुछ अधिक ही थी। इसी तरह पीएम 10 की मात्रा 496 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज की गई, जो कि आपात स्थिति के करीब है। गुरुवार को गाजियाबाद और नोएडा में भी वायु प्रदूषण का स्तर करीब-करीब ऐसा ही दर्ज हुआ। कुछ दिन पहले एकाध बार बारिश से राहत मिली थी, पर वह राहत छिन चुकी है।

इस साल कुछ समय से दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्य संबंधी तकलीफें बड़े पैमाने पर महसूस की जा रही हैं। जो पहले से किसी रोग के थोड़े-बहुत शिकार हैं, उनका तो बुरा हाल है ही, जो सामान्य थे उन्हें भी तबीयत सामान्य नहीं लग रही है। काफी उम्रदराज लोगों के लिए तो जीना मुश्किल है। चिकित्सक चेतावनी दे चुके हैं कि अगर प्रदूषण इसी तरह बना रहे तो पैदा होने वाले शिशुओं का मस्तिष्क अविकसित रह जा सकता है। इससे ज्यादा चिंताजनक स्थिति और क्या हो सकती है! पर सारी चेतावनियों का जैसा असर होना चाहिए, कहीं नहीं दिख रहा है। जो हालात हैं उनमें फौरी यानी आपात कदमों से लेकर मध्यावधि और दीर्घकालीन, सभी तरह के उपाय करने की जरूरत है। मौसम में बदलाव का इंतजार करने से काम नहीं चलेगा। मौसम बदलता रहता है। पर प्रदूषण प्रकृति की देन नहीं है, यह मनुष्य निर्मित है। अगर लोग चाहें तो वायु प्रदूषण से निजात पा सकते हैं, बशर्ते परिवहन नीति, ऊर्जा नीति और नगर नियोजन आदि को पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रख कर तय करें। ऐसा करना बड़े संकल्प के बिना संभव नहीं हो सकता। संकल्प इसलिए क्योंकि बहुत सारी नीतियों, प्राथमिकताओं और आदतों को भी बदलना होगा।

प्रचलित विकास नीति में सारा जोर उत्पादन वृद्धि यानी जीडीपी पर है। लेकिन क्या जीडीपी सब कुछ है? क्या हवा और पानी को बचाना जीडीपी वृद्धि से कम मूल्यवान है? लेकिन विकास की दुहाई देकर पर्यावरण संरक्षण के तकाजे की हमेशा बलि चढ़ाई जाती रही है। यह अब नहीं चल सकता। खतरों की घंटियां और भी जोर-जोर से बजने लगी हैं। दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने के जल्द और सख्त कदम नहीं उठाए गए तो यहां रहना सेहत के लिहाज से बहुत त्रासद हो जाएगा। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को प्रदूषण से राहत दिलाने के लिए दिल्ली और पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को मिल कर एक कार्ययोजना बनानी होगी, और केंद्र को भी उसमें सहभागी बनना होगा। कहने को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लेकर पर्यावरण मंत्रालय तक पर्यावरण की फिक्र करने वाले महकमों और संस्थानों की कमी नहीं है। पर वे तभी अपनी काबिलियत कारगर ढंग से साबित कर सकते हैं जब सरकारें वायु प्रदूषण से निपटने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाएं।