ओड़िशा के एक 32 वर्षीय अधिकारी ने अपनी वास्तविक लैंगिक पहचान सार्वजनिक कर दी। रतिकांत प्रधान के रूप में पैदा हुई और ओड़िशा की वित्तीय सेवा में नौकरी कर रही इस अधिकारी ने एलान किया कि हां, वह ट्रांसजेंडर हैं। अपनी नई पहचान के साथ उन्होंने खुद को नया नाम दिया है, ऐश्वर्या रितुपर्णा प्रधान। उनका यह कबूलनामा हमारे सामाजिक विकास की एक अहम घटना है। यों हमारा संविधान जन्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता, चाहे वह जाति या समुदाय या धर्म के आधार पर हो या लैंगिक आधार पर। मगर हमारे समाज में भांति-भांति के भेदभाव और वर्गीय उत्पीड़न के व्यवहार रोजाना दिखते हैं। इन्हें रोकने के लिए कुछ संवैधानिक उपाय किए गए। मसलन, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विधायिका, प्रशासन और शिक्षण संस्थानों में एक निश्चित सीमा तक स्थान आरक्षित करने के प्रावधान हुए। लेकिन किन्नर एक ऐसा समुदाय है, जो सबसे ज्यादा सामाजिक अलगाव झेलता आया है, पर जिसे सशक्तीकरण के किसी भी उपाय का सहारा नहीं मिला।
उपेक्षा और उपहास के कारण उनके लिए पढ़ना-लिखना आमतौर पर संभव नहीं हो पाता। फिर, नौकरियों में उनकी मौजूदगी कैसे दिखेगी? स्व-रोजगार भी उनके मुश्किल होता है, क्योंकि इसमें औरों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। उनके प्रति भय और तिरस्कार के कारण वे घरेलू सहायक होने तक के पात्र नहीं समझे जाते। लिहाजा, नाच-गाकर और भीख या बख्शीश मांग कर गुजारा करने के सिवा उनके पास दूसरा चारा नहीं होता।
ओड़िशा के जिस अधिकारी ने खुद के किन्नर होने का अब खुलासा किया है, उन्होंने शुरू से अपनी यह पहचान छिपाए रखी थी। भारतीय जनसंचार संस्थान से स्नातक और लोक प्रशासन में स्नातकोत्तर प्रधान ने एक अखबार में प्रशिक्षु के रूप में काम किया, फिर एक बैंक में क्लर्क की नौकरी की। बाद में राज्य सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की। फिर ओड़िशा के पारादीप में वाणिज्यिक कर अधिकारी के रूप में उनकी तैनाती हुई। अपनी वास्तविक लैंगिक पहचान को छिपाने का सिलसिला शायद चलता रहता, मगर सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने उन्हें इस सिलसिले पर विराम लगाने और दुनिया को सच्चाई बताने की हिम्मत दी।
पिछले साल अप्रैल में न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देने और उनके संवैधानिक अधिकारों की गारंटी देने का फैसला सुनाया था। सर्वोच्च अदालत के उस फैसले की अहमियत ओड़िशा की इस अधिकारी की अपने बारे में की गई स्वीकारोक्ति से भी जाहिर है। बेशक इस मामले को किन्नरों की आम हालत में सुधार का पैमाना नहीं कहा जा सकता, पर यह इस बात का संकेत तो है ही कि उनमें अब अपनी पहचान को लेकर शर्म महसूस करने का भाव कम हो रहा है और समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की ललक बढ़ रही है। यह भी अच्छी बात है कि प्रधान के सहकर्मियों ने उनकी नई पहचान को सहजता से लिया है। किन्नरों के प्रति समाज की मानसिकता में आ रहे सकारात्मक बदलाव की झलक कुछ महीने पहले भी दिखी थी, जब पश्चिम बंगाल के कॉलेज सेवा आयोग ने एक किन्नर मानवी बंद्योपाध्याय को पदोन्नति देकर एक कॉलेज के प्रिंसिपल पद पर नियुक्त किया था।