इस बार के चुनाव में पहली बार नोटा ने लोगों का ध्यान खींचा। उसकी प्रासंगिकता पर चर्चा शुरू हो गई। इंदौर की लोकसभा सीट पर दो लाख से अधिक लोगों ने नोटा का बटन दबाया। नोटा यानी ऊपर में से किसी को नहीं। यानी जो मतदाता किसी भी प्रत्याशी को पसंद नहीं करते, वे अपना मत नोटा के रूप में दर्ज कराते हैं। इस तरह मतदान मशीन में नोटा एक तरह से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में उपस्थित होता है। पहले की अपेक्षा इस बार कई जगहों पर नोटा को बड़ी संख्या में मत प्राप्त हुए।
मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता
इंदौर में इस बटन को कुछ अधिक लोगों ने इसलिए दबाया कि पर्चा वापसी के आखिरी दिन कांग्रेस के प्रत्याशी ने अपना पर्चा वापस ले लिया। इससे पहले सूरत में भी कांग्रेस के एक प्रत्याशी ने अपना पर्चा वापस ले लिया था। तब भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध चुन लिया गया था। उस वक्त कहा गया था कि इस तरह मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, नोटा भी एक प्रत्याशी होता है।
दरअसल, नोटा का विकल्प देने के पीछे एक लंबी लड़ाई चली थी। काफी समय से मांग उठ रही थी कि अगर किसी जनप्रतिनिधि से लोग खुश नहीं हैं, तो उन्हें उसे हटाने का अधिकार मिलना चाहिए। जिस तरह प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, उसी तरह मतदाता को उसे हटाने का भी अधिकार मिलना चाहिए। मगर उस पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। फिर यह भी कहा गया कि बहुत सारे लोग किसी भी प्रत्याशी को पसंद नहीं करते, मगर मताधिकार का प्रयोग करते हुए उन्हें किसी न किसी को मत देना ही पड़ता है।
ऐसे में यह विकल्प भी होना चाहिए कि वे हर प्रत्याशी को नकारने का मत दे सकें। इसी मांग के तहत विकल्प के रूप में नोटा शुरू किया गया। मगर इस विकल्प का कोई निर्णायक महत्त्व नहीं है। अगर इसे लेकर कोई स्पष्ट नियम बन जाए कि कितने प्रतिशत लोगों के नोटा का विकल्प चुनने पर नए सिरे से चुनाव कराने होंगे, तब तो इसका महत्त्व होगा, नहीं तो यह महज दिखावे का एक बटन बना रहेगा। इसलिए अभी तक नोटा का कोई प्रभाव नजर नहीं आता।