नेताजी सुभाष चंद्र बोस से संबंधित सौ फाइलें केंद्र सरकार ने डिजिटल रूप में सार्वजनिक कर दी हैं, जो अब तक गोपनीय दस्तावेज थीं। यह स्वागत-योग्य है। ऐसी और भी फाइलें हैं जिनमें से पच्चीस फाइलें हर महीने राष्ट्रीय अभिलेखागार डिजिटल रूप में जारी करेगा। सभी फाइलें एक ही बार में सार्वजनिक क्यों नहीं की गर्इं? क्या इसलिए कि कुछ महीनों में होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर भाजपा चाहती होगी कि इस मसले की आंच बनी रहे? इन फाइलों को सार्वजनिक कर मोदी ने इस मामले में ममता बनर्जी पर बढ़त बनाने की कोशिश की है। पर भाजपा की समस्या यह है कि तमाम शोर-शराबे के बावजूद आज भी बंगाल में वह मुख्य मुकाबले में नहीं है। नेताजी के बारे में, खासकर उनकी मृत्यु को लेकर कई तरह की धारणाएं और दावे चलन में रहे हैं। इतिहासविद यह मांग करते रहे हैं कि ये फाइलें सार्वजनिक की जाएं; ये अनुसंधान में सहायक होंगी और इनसे भ्रामक बातों का निराकरण और प्रामाणिक तथ्यों की पुष्टि हो सकेगी। सुभाष बोस चूंकि आजादी की लड़ाई के महानायकों में थे, इसलिए यह मांग सिर्फ अकादमिक नहीं रही, धीरे-धीरे एक लोकप्रिय मांग बनती गई। इससे पहले सभी केंद्र सरकारों का रुख यही था कि ये फाइलें सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा, इससे कुछ देशों से हमारे संबंध खराब हो सकते हैं। वाजपेयी सरकार के समय भी ये फाइलें सार्वजनिक नहीं की गर्इं। मोदी सरकार बनने के बाद, लोकसभा चुनाव में किए वादे के बावजूद, भाजपा वही दलील देती रही जो पहले की सरकारों की थी। मगर ममता बनर्जी के एक फैसले ने केंद्र सरकार को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया।
पिछले साल सितंबर में ममता बनर्जी ने राज्य सरकार के पास रखी नेताजी से संबंधित चौंसठ फाइलें सार्वजनिक कर दीं। इसके पीछे विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख एक भावनात्मक मुद्दे को लपकने की मंशा भी रही होगी। इससे केंद्र पर दबाव बढ़ गया। एक महीने बाद प्रधानमंत्री ने नेताजी के परिजनों से मुलाकात की और फाइलें सार्वजनिक करने का वादा किया, जिसे पूरा करने का क्रम शुरू हो गया है। हजारों पन्नों की इस दस्तावेजी सामग्री की पड़ताल में वक्त लगेगा। पर नेताजी की मृत्यु का कथित रहस्य सुलझने की जो उम्मीद की जा रही थी वह पूरी नहीं हुई। अब भी अनुमान, संदेह और भिन्न व्याख्याओं की गुंजाइश कायम है। अलबत्ता ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली को लिखे नेहरू के कथित पत्र ने कांग्रेस की परेशानी जरूर बढ़ाई है, मगर इस पत्र पर नेहरू का हस्ताक्षर नहीं है और कांग्रेस ने इसकी प्रामाणिकता को चुनौती दी है तथा सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाए हैं। नेताजी की मत्यु या गुमनामी का सच जानने के लिए तीन जांच आयोग बने, पर रहस्य बना रहा। उनके परिजनों की भी राय इस मामले में अलग-अलग है। यह सब इसलिए भी है कि कई बार तथ्यों के बजाय भावनात्मक धुंधलके में निष्कर्ष तलाशने की कोशिश होती है। अब उन फाइलों से आस लगाई जाएगी जिन्हें सार्वजनिक किया जाना बाकी है। तब भी कुछ हासिल नहीं होगा, तो शायद ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, अमेरिका में रखे दस्तावेजों से उम्मीद बांधी जाएगी, जिन्हें प्राप्त करना असंभव भी हो सकता है। नेताजी के जरिए सियासी गुणा-भाग के फेर में यह असल मुद्दा भुला दिया जा रहा है कि नेताजी कैसा भारत बनाना चाहते थे।