चिकित्सा संस्थानों में प्रवेश को लेकर चला आ रहा द्वंद्व आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से खत्म हो गया। करीब छह साल पहले अध्यादेश जारी किया गया था कि देश भर के चिकित्सा संस्थानों में दाखिले के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा का प्रावधान होगा। मगर कुछ निजी और अल्पसंख्यक संस्थाओं को आपत्ति थी कि यह शर्त उन पर थोपी नहीं जानी चाहिए। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी यह दलील खारिज कर दी है। अब सभी सरकारी, निजी कॉलेजों और डीम्ड विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा के जरिए ही दाखिले दिए जा सकेंगे। अभी तक अलग-अलग कॉलेज और विश्वविद्यालय अपने ढंग से प्रवेश परीक्षाएं आयोजित करते आ रहे थे। इस तरह विद्यार्थियों को हर प्रवेश परीक्षा के लिए अलग-अलग तैयारी करनी पड़ती थी। हर प्रवेश परीक्षा का आवेदन करने के लिए फीस अदा करनी पड़ती थी। इस तरह विद्यार्थियों पर पैसे और परीक्षा का तनाव अधिक बना रहता था।

फिर अलग-अलग परीक्षाएं लेने और निजी कॉलेजों में प्रबंधन का कोटा निर्धारित होने के कारण उनमें ऐसे विद्यार्थियों के प्रवेश की गुंजाइश रहती थी, जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं। इससे कमजोर आर्थिक स्थिति वाले अनेक होनहार विद्यार्थियों को दाखिले से वंचित होना पड़ता था। अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए यह भी कह दिया है कि अगर इस पर किसी को कोई शिकायत या आपत्ति है तो वह किसी दूसरी अदालत में अपील नहीं कर सकता। इस मामले में हाईकोर्ट दखल नहीं दे सकते। इससे बेवजह मुकदमा दायर कर प्रवेश प्रक्रिया को बाधित करने की संभावना भी समाप्त हो गई है।

चिकित्सा संस्थाओं में दाखिले को लेकर मची होड़ का सबसे बड़ा कारण है कि एमबीबीएस और बीडीएस करने के बाद युवाओं को उस तरह रोजगार की तलाश में नहीं भटकना पड़ता, जिस तरह दूसरे विषयों की पढ़ाई करके उनके सामने अनिश्चितता बनी रहती है। इसलिए जिन लोगों के पास पैसा है, वे निजी संस्थाओं में डोनेशन आदि देकर अपने बच्चों का दाखिला कराने का प्रयास करते हैं। देश भर में करीब चार सौ मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें महज बावन हजार विद्यार्थियों को जगह मिल पाती है।

जबकि इसके लिए हर साल लाखों विद्यार्थी प्रवेश परीक्षाएं देते हैं। इनमें पैसे के बल पर प्रवेश पाने वाले विद्यार्थी योग्य विद्यार्थियों का हक छीन लेते हैं। जाहिर है, इसे लेकर बहुत से लोगों में असंतोष था। संयुक्त प्रवेश परीक्षा से निजी संस्थानों की मनमानी पर रोक लग सकेगी। इंजीनियरिंग आदि में दाखिले के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा प्रणाली लागू है, फिर चिकित्सा संस्थानों को इससे क्यों गुरेज होना चाहिए! चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई दूसरे सामान्य विषयों की तरह नहीं है। उसमें अयोग्य विद्यार्थियों को किसी तरह प्रशिक्षण देना एक तरह से खतरे को न्योता देना है।

चिकित्सा की पढ़ाई पूरी करने के बाद बहुत से युवा निजी स्तर पर रोगियों का इलाज करने का फैसला करते हैं। जो थोड़े संपन्न हैं, वे निजी चिकित्सालय तक खोल लेते हैं। एक अकुशल चिकित्सक लोगों की सेहत सुधारने के बजाय बिगाड़ता ही है। यह स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कहा जा सकता। ऐसे में चिकित्सा संस्थानों को भी इस बिंदु पर सोचने की दरकार है कि उन्हें सिर्फ अपनी कमाई के बारे में नहीं, अच्छे चिकित्सक तैयार करने पर जोर देना चाहिए। संयुक्त प्रवेश परीक्षा प्रणाली को स्वीकार करने और दाखिले में पारदर्शिता बनाने में उन्हें किसी तरह की झिझक क्यों होनी चाहिए।