अठारहवीं लोकसभा के पहले सत्र की शुरुआत और नए सांसदों के शपथ ग्रहण के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण काम लोकसभा अध्यक्ष पद पर नियुक्ति होगी। हालांकि इस बार इस पर जिस तरह की खींचतान चल रही है, वह अप्रत्याशित है, फिर भी नई लोकसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के संख्या बल से बने समीकरण को देखते हुए इसे स्वाभाविक कहा जा सकता है। फिलहाल राष्ट्रपति ने भाजपा सांसद भर्तृहरि महताब को प्रोटेम अध्यक्ष नियुक्त किया है। इस क्रम में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए सहमति नहीं बन पाने की वजह से इस बार अब इसके लिए चुनाव कराने की नौबत आ गई है। अब स्थिति यह है कि पिछली लोकसभा में निचले सदन के अध्यक्ष रहे भाजपा सांसद ओम बिरला ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर नामांकन दाखिल किया है। कांग्रेस सांसद के सुरेश विपक्ष के उम्मीदवार होंगे।

दरअसल, लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की नौबत आने के पीछे मुख्य बात यह सामने आई है कि विपक्ष की ओर से लोकसभा उपाध्यक्ष पद दिए जाने की मांग उठाई गई, लेकिन सरकार ने इसे लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया। नतीजतन, लोकसभा अध्यक्ष पद पर नियुक्ति अब चुनाव के जरिए ही होगा। इस मसले पर विपक्ष का कहना था कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को दिए जाने की परंपरा रही है और अगर सरकार इस परंपरा का पालन करती है तो पूरा विपक्ष सदन के अध्यक्ष के रूप में सरकार के उम्मीदवार का समर्थन करेगा। निचले सदन में लोकसभा अध्यक्ष का पद कई लिहाज से बेहद अहम होता है। उन्हें संतुलित और तटस्थ रुख रखते हुए सभी जनप्रतिनिधियों के प्रति न्यायपूर्ण दिखना होता है, क्योंकि अध्यक्ष किसी सत्ताधारी दल या विपक्ष का नहीं होता, पूरे सदन का होता है। इसी तरह उपाध्यक्ष को भी सभी दलों के सदस्यों के प्रति समान भाव रखना होता है। ऐसे में अगर अध्यक्ष का चुनाव सभी दलों की सहमति से होता तो यह एक आदर्श स्थिति होती। मगर हालत यह है कि इस मामले में खुद सत्ताधारी गठबंधन के प्रमुख घटक तेलगु देसम पार्टी और जनता दल (एकी) के रुख ने भाजपा को चिंतित किया था।

सवाल है कि आखिर किन वजहों से सरकार और विपक्ष के बीच इस मामले में एक परिपक्व सहमति नहीं बन पाई। अगर विपक्ष लोकसभा में उपाध्यक्ष पद मिलने पर अध्यक्ष के लिए समर्थन देने को तैयार था, तब सरकार इस पर सहमत क्यों नहीं हुई? सच यह है कि लोकसभा अध्यक्ष का पद बेहद महत्त्वपूर्ण होता है और कई बार बहुत नाजुक स्थितियों में उनका फैसला निर्णायक होता है। सदन में बहुमत साबित करने, दल-बदल कानून लागू करने और सदन के सदस्यों की योग्यता और अयोग्यता का फैसला लेने के मसले पर लोकसभा अध्यक्ष के रुख पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यह छिपा नहीं है कि पिछली लोकसभा के दौरान अध्यक्ष के रवैये को लेकर विपक्षी दलों के बीच खासा असंतोष देखा गया। जबकि यह पद लोकसभा को संचालित करने के लिहाज से जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उतना ही जरूरी यह है कि अध्यक्ष पर सदन के सभी जनप्रतिनिधियों का यह विश्वास हो कि किसी भी स्थिति में वे पक्षपात और पूर्वाग्रह के बिना सबके प्रति न्यायपूर्ण रुख अपनाएंगे। इसे सुनिश्चित करना सरकार की भी जिम्मेदारी होती है। अगर लोकसभा में जरूरी मुद्दों पर सभी संबंधित सदस्य अपनी उपस्थिति दर्ज कर पाते हैं तो इससे लोकतंत्र की खूबसूरती ही बढ़ेगी।