छत्तीसगढ़ में एक बार फिर नक्सली कहर बरपा है। बुधवार को राज्य के दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से करीब छत्तीस किलोमीटर दूर कुआकोंडा ब्लाक के मैलावाड़ा-कलहारपारा के बीच नक्सलियों ने उस समय बारूदी सुरंग में विस्फोट किया, जब सीआरपीएफ 230 बटालियन के जवान ट्रक से नेरसीघाट शिविर से भूसारास शिविर जा रहे थे। इस हमले ने सात जवानों की जान ले ली। विस्फोट इतना तीव्र था कि बारूदी सुरंग के ऊपर आए वाहन के परखचे उड़ गए, टुकड़े सौ मीटर के दायरे में बिखर गए और वहां सड़क पर सात फुट गहरा और पंद्रह फुट चौड़ा गड्ढा हो गया।

हमलावर सीआरपीएफ की इस टुकड़ी के हथियार और राशन-पानी भी ले गए। छत्तीसगढ़ की गिनती उन राज्यों में होती है जो नक्सली हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं। फिर, दंतेवाड़ा तो बरसों से माओवादियों की सक्रियता का एक खास केंद्र है। दंतेवाड़ा में सुरक्षा बलों पर किए गए उनके हमलों की एक लंबी सूची है, जिसमें सबसे भयानक हमला अप्रैल 2010 में हुआ था, जिसमें सीआरपीएफ के छिहत्तर जवान मारे गए थे। सीआरपीएफ की वह बटालियन नक्सलियों की तलाशी के अभियान पर निकली थी। लेकिन ताजा हमला ऐसे वक्त हुआ जब सीआरपीएफ के जवान किसी नक्सल-विरोधी मुहिम पर नहीं निकले थे, बस वे एक शिविर से दूसरे शिविर को जा रहे थे।

यह तथ्य बताता है कि नक्सली केवल सुरक्षा बलों की कार्रवाई के जवाब में या ‘आत्मरक्षा’ के लिए ही हमला नहीं बोलते, और भी वजहों से हमले करते हैं। सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने की मंशा और इलाके में किसी परियोजना को अटकाने से लेकर अपना खौफ कायम करने तक उनके कई इरादे हो सकते हैं। सवाल यह है कि नक्सलियों का गढ़ माने जाने वाले दंतेवाड़ा में जवानों के एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने तक आने-जाने के लिए आमतौर पर जो सावधानी बरती जानी चाहिए, क्यों नहीं बरती गई? ऐसे में जवानों की आवाजाही की जानकारी एकदम गोपनीय होती है। माओवादियों को इसकी भनक कैसे लग गई? यह जांच का विषय है। पर अगर उन्हें सूचना देने वाला कोई ‘भीतर’ का आदमी हो तब तो और भी चिंता की बात होगी।

जब भी नक्सली हिंसा की कोई बड़ी वारदात होती है, सुरक्षा बलों की तैनाती और बढ़ाने की वकालत की जाती है। इसी तर्क पर उनकी तैनाती बढ़ती गई है। मगर सवाल है कि इसका अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं आ पाया है। दरअसल, समस्या यह है कि अर्धसैनिक बल स्थानीय परिस्थितियों से अनजान होते हैं और किसी भी कार्रवाई या रणनीति के लिए पुलिस पर निर्भर रहते हैं। लेकिन पुलिस की छवि ऐसी है कि लोग उससे भय खाते हैं। इसलिए वह स्थानीय लोगों के जरिए नक्सलियों की गतिविधियां पता करने में अक्सर नाकाम रहती है। दूसरी ओर, नक्सली इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ होते हैं और पुलिस तथा प्रशासन के प्रति लोगों के असंतोष का फायदा उठा कर किसी हद तक उनमें अपनी पैठ भी बना लेते हैं।

लिहाजा, नक्सली हिंसा को निर्मूल करने के लिए पुलिस की छवि और कार्यप्रणाली में बदलाव लाने की जरूरत है। अलबत्ता कई बार संसाधनों के अपर्याप्त होने की वजह से भी दिक्कत आती है। तमाम राज्यों में पुलिस के हजारों पद खाली है, इनमें नक्सली हिंसा से प्रभावित राज्य भी हैं। फिर उपलब्ध पुलिस बल का एक खासा हिस्सा वीआईपी-सेवा में लगा रहता है। दंतेवाड़ा की इस घटना ने एक बार फिर रेखांकित किया है कि आंतरिक सुरक्षा की तैयारियों और तौर-तरीकों की गहन समीक्षा की जरूरत है।