प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल आला नौकरशाहों को संबोधित करते हुए कहा था कि वे निडर होकर काम करें। यह कहने की जरूरत इसीलिए महसूस हुई होगी कि अधिकारी कई बार निर्णय लेने से डरते हैं। इसलिए वरिष्ठ अधिकारियों के अनुभवों और सोच-समझ का पूरा लाभ नहीं मिल पाता है। यह स्थिति तभी बदली जा सकती है जब अफसर बेखौफ होकर काम करें, यह डर न रहे कि उन्हें तंग किया जा सकता है। इसी तकाजे और पिछले साल नौकरशाहों से किए प्रधानमंत्री के वादे के अनुरूप केंद्र ने महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है। अब केंद्र के अधीन काम करने वाले अफसरों से संबंधित निलंबन के नियम और सख्त बना दिए गए हैं, यानी अब उन्हें निलंबित करना पहले से ज्यादा मुश्किल होगा। नए नियम के मुताबिक निलंबन के लिए कार्मिक, लोक शिकायत एवं प्रशिक्षण मंत्रालय की मंजूरी जरूरी होगी।
जाहिर है, इस नियम ने वरिष्ठ अधिकारियों की बाबत केंद्रीय मंत्रालयों और मुख्यमंत्रियों को मिले विवेकाधिकार में काफी हद तक कटौती कर दी है। अखिल भारतीय सेवाएं (अनुशासन एवं अपील) से संबंधित नियमों के अंतर्गत ही आईएएस, आइपीएस और वनसेवा के अफसर काम करते हैं। संशोधित नियमों के मुताबिक अगर कोई राज्य सरकार किसी अधिकारी को निलंबित करती है तो अड़तालीस घंटों के भीतर केंद्र को सूचित करना होगा, फिर एक पखवाड़े के भीतर विस्तृत रिपोर्ट देनी होगी। निलंबन के आदेश की प्रति कारणों सहित नियंत्रक प्राधिकरण को भेजनी होगी, यानी आईएएस के मामले में कार्मिक मंत्रालय को, आईपीएस के मामले में गृह मंत्रालय को और वन अधिकारी के मामले में पर्यावरण मंत्रालय को। निलंबन की अवधि भी घटा दी गई है, अब तक यह तीन महीने की थी, अब दो महीने की होगी। अगर निलंबन की अवधि बढ़ाई जाती है तो यह अधिकतम चार महीने की होगी, जो अभी तक छह महीने थी। निलंबन के मामलों की समीक्षा के लिए केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में एक समिति होगी।
इन संशोधित नियमों का मकसद साफ है कि अफसरान बिना किसी राजनीतिक भय के काम करें। कार्मिक मंत्रालय का प्रभार प्रधानमंत्री के पास है, और जब तक यह उनके पास है, निलंबन के मामलों पर सीधे उनकी नजर रहेगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि नए नियम मुख्यमंत्रियों को रास नहीं आएंगे। लेकिन हरियाणा में अशोक खेमका, उत्तर प्रदेश में दुर्गा शक्ति नागपाल और बिहार में कुलदीप नारायण जैसे ईमानदार अफसरों को परेशान किए जाने की मिसालों को देखते हुए नए नियमों की अहमियत समझी जा सकती है। प्रशासनिक सुधार के लिए समय-समय पर बने आयोगों और समितियों की तमाम सिफारिशें धूल खा रही हैं। केंद्र के अलावा राज्य सरकारों को भी उन सिफारिशों पर नए सिरे से गौर करना चाहिए।
इस सिलसिले में सबसे अहम पहल यह हो सकती है कि पुलिस को सियासी दखलंदाजी से बचाने और उसकी कार्यप्रणाली में सुधार के मकसद से बनी सोली सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू की जाएं। सोराबजी समिति की एक मुख्य सिफारिश यह थी कि आईपीएस अफसरों के तबादले, पदोन्नति और अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए एक स्वायत्त बोर्ड बने और कम से कम दो साल तक तबादला न हो। सर्वोच्च अदालत की कई बार की हिदायत के बावजूद राज्य सरकारें सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू करने को तैयार नहीं हुर्इं, तरह-तरह से आनाकानी करके मसले को टालती रही हैं। अनेक राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। मोदी चाहें तो सोराबजी समिति की सिफारिशों को लेकर चला आ रहा गतिरोध दूर करने की पहल कर सकते हैं।