पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर भारत के ‘आपरेशन सिंदूर’ की कामयाबी पर जहां पूरा देश गौरवान्वित है, वहीं मध्य प्रदेश सरकार के एक मंत्री विजय शाह की बदजुबानी से सभी देशवासियों को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। सार्वजनिक मंच पर कर्नल सोफिया कुरैशी के संदर्भ में मंत्री ने जिस तरह की बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की, उससे भारत की सौहार्द और धर्मनिरपेक्षता की भावना को ठेस पहुंची है। स्वाभाविक ही सभी ने इसकी भर्त्सना की। इस मामले की गंभीरता का अंदाजा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश की टिप्पणियों और मंत्री के खिलाफ बिना देर किए प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश से लगाया जा सकता है।
इस मामले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने साफ शब्दों में कहा कि मंत्री का बयान न केवल व्यक्तिगत मानहानि है, बल्कि समाज के ताने-बाने पर भी चोट करता है। इसके अलावा, जब एक न्यायाधीश को कानूनी कार्रवाई शुरू करने के लिए यह कहना पड़े कि ‘हो सकता है कि कल मैं जीवित न रहूं… चार घंटे में आदेश का पालन हो’ तो इससे व्यवस्था की जटिलता और उदासीनता का पता चलता है। विडंबना यह है कि अदालत के इस तरह के रुख के बावजूद आरोप को स्पष्टता के साथ दर्ज करने में लापरवाही बरती गई।
सेना की प्रतिष्ठा को भी धूमिल करने की कोशिश
सवाल उठता है कि जिस बेहद संवेदनशील समय में भारत ने पाकिस्तानी के खिलाफ कार्रवाई करते हुए भी बेहद संयमित और नपा-तुला रुख अपनाया, उससे हासिल गरिमा को कायम रखने के बजाय उसे बिगाड़ने की कोशिश करने वाले व्यक्ति को कैसे देखा जाना चाहिए। मंत्री ने महिला सैन्य अधिकारी की गरिमा को ही ठेस नहीं पहुंचाई, बल्कि सेना की प्रतिष्ठा को भी धूमिल करने की कोशिश की। मामले के तूल पकड़ने के बाद भले ही मंत्री ने सफाई दी, लेकिन ऐसे बयानों के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति की अशोभनीय और आपत्तिजनक भाषा का समर्थन देश के प्रति सम्मान रखने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं करेगा। जरूरत इस तरह की बदजुबानी और बेलगाम बयानबाजी पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए ठोस और नीतिगत पहल करने की है, ताकि देश के संविधान के मर्म और सौहार्द को कोई नुकसान न पहुंचे।