करीब दो वर्ष पहले किसानों ने जब अपने आंदोलन के तहत दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाला था, तब कई महीनों तक प्रदर्शन के बाद सरकार के साथ कुछ बिंदुओं पर सहमति बनी और किसान वापस गए। मगर अब एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए कानून की मांग सहित कई अन्य मुद्दों के साथ किसानों ने ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ प्रदर्शन शुरू कर दिया है। सवाल है कि आखिर किसानों के पिछले आंदोलन के बाद सरकार के साथ हुए समझौते का क्या स्वरूप था और उसमें बनी सहमति को जमीन पर उतारने को लेकर ऐसी गंभीरता क्यों नहीं दिखी कि किसानों को फिर से सड़क पर उतरने की नौबत आई।

गौरतलब है कि दो वर्ष पहले किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन के बाद केंद्र सरकार को संसद से पारित तीन कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा था। तब सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी देने का वादा किया था। मगर किसानों की शिकायत है कि सरकार ने अपने वादे पूरे नहीं किए। अब किसानों के ताजा आंदोलन के बाद फिर जो हालात पैदा हो रहे हैं, अगर उसे लेकर सही नीति नहीं अपनाई गई तो सड़कों पर अव्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती है।

विचित्र यह भी है कि सरकार की ओर से किसानों को रोकने के लिए जिस तरह सड़क पर कीलें लगाने और बाधाएं खड़ी जैसे उपाय किए गए हैं, उसे एक तरह से विरोध प्रदर्शन को बाधित करने की तरह देखा जा रहा है। जबकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी को अपने वाजिब मुद्दों के लिए विरोध जताने या प्रदर्शन करने का अधिकार होना चाहिए। यह सरकार के लिए सोचने का वक्त है कि आखिर पिछले आंदोलन के दौरान बनी सहमति के बिंदुओं को लागू करने को लेकर कहां चूक या लापरवाही हुई कि किसान संगठन फिर से अपनी मांगों के साथ सड़क पर आ गए।

संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि ताजा प्रदर्शन के जरिए वे सरकार को दो वर्ष पहले किए गए उन वादों को याद दिलाना चाहते हैं, जो आंदोलन को वापस लेने की अपील करते हुए सरकार ने किए थे। वे वादे अब तक पूरे नहीं हुए। वहीं सरकार की ओर से ऐसे संकेत दिए जा रहे हैं कि फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी वाला कानून सभी हितधारकों से परामर्श किए बिना जल्दबाजी में नहीं लाया जा सकता है।

सवाल है कि वादा करने के बावजूद सरकार आखिर अब तक क्या कर रही थी कि इस मसले पर किसानों के बीच स्पष्टता नहीं बन सकी? हालांकि विरोेध प्रदर्शन से उपजने वाली अव्यवस्था की आशंका के मद्देनजर सरकार किसानों को रोकने की कोशिश कर रही है, लेकिन अगर किसान संगठन अपनी बात शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से जनता और सरकार के सामने रखना चाहते हैं, तो उन्हें बाधित क्यों किया जाना चाहिए?

फिर किसान संगठनों को भी यह खयाल रखने की जरूरत है कि उनके आंदोलन की वजह से कानून-व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति और आम जनता के सामने मुश्किलें न पैदा हों। गौरतलब है कि दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के जमावड़े की वजह से आम जनता के सामने कई प्रकार की दिक्कतें खड़ी होनी शुरू हो गई हैं। जरूरत इस बात की है कि हालात जटिल होने से पहले सरकार किसान संगठनों से बातचीत का रास्ता निकाले और सहमति के बिंदु तैयार करे।