विकास की कीमत जल, जंगल और जमीन को चुकानी पड़ रही है। उद्योगीकरण और शहरीकरण का प्रतिकूल असर जंगलों पर पड़ा है। हजारों हेक्टेयर वन भूमि पर लगे वृक्षों की कटाई हो जाती है, लेकिन इसके खिलाफ कभी सख्त कार्रवाई नहीं होती। उत्तराखंड में तो पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक के जंगल अतिक्रमण की जद में हैं। वन क्षेत्र में अतिक्रमण का कुछ राज्यों में कड़ा विरोध होता रहा है। बावजूद इसके, अगर देश भर के जंगलों में चुपचाप अतिक्रमण होता चला गया, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। सिर्फ जंगलों के ठेकेदार और खनन माफिया दोषी नहीं हैं।
बड़े उद्योगों को भी खुली छूट मिली और वे प्राकृतिक संपदा के दोहन के लिए वन क्षेत्रों पर कब्जा करते चले गए। कहीं-कहीं जंगलों को काट कर सड़कें बनाई गईं। यही वजह है कि राज्यों की ओर से पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को सौंपे गए आंकड़े डराते हैं। इनके मुताबिक पच्चीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में तेरह हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण हो चुका है। जबकि अभी दस राज्यों ने अपने यहां हुए अतिक्रमण की जानकारी नहीं दी है। सवाल है कि अगर दिल्ली, गोवा और सिक्किम के कुल भौगोलिक क्षेत्र से अधिक देश की वन भूमि पर कब्जा हो गया, तो इसे रोका क्यों नहीं जा सका?
कोयला और खनिजों के खनन के लिए जंगलों की कटाई
कोयला और खनिजों के खनन के लिए जंगलों की प्राय: कटाई होती रही है। वहीं कृषि और अन्य गतिविधियों के लिए वन क्षेत्रों में अतिक्रमण कोई छिपी बात नहीं है। वनों के दोहन औरउनमें औद्योगिक गतिविधियां इसलिए तेजी से बढ़ी हैं कि पर्यावरण मंजूरी से संबंधित कानूनों को बहुत कमजोर बना दिया गया है।
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अब इसे गंभीरता से लेने की बहुत जरूरत है, क्योंकि इससे न केवल वन्य जीवन संकट में है, बल्कि इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ने लगा है। वन संबंधी कानून होने के बावजूद अगर मध्यप्रदेश में सर्वाधिक अतिक्रमण हुआ है, तो इस पर सोचने का ही नहीं, कदम उठाने का समय है। समय रहते कार्रवाई हो, तो वन भूमि को बचाया जा सकता है। आने वाली पीढ़ियों के लिए हम प्राकृतिक संपदा बचा पाएं, तो यह बड़ी बात होगी।