एक राष्ट्र एक चुनाव मौजूदा केंद्र सरकार का महत्त्वाकांक्षी विचार है। यह नारा उसने अपने पिछले कार्यकाल में ही दिया था। मगर इसे लेकर विरोध शुरू हो गया और विपक्षी दलों ने न केवल इसे अव्यावहारिक, बल्कि असंवैधानिक भी करा दिया था। सरकार ने इस पर विचार और सुझाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुआई में एक समिति गठित कर दी। उस समिति के गठन पर भी सवाल उठे कि उसके सदस्यों के पास अपेक्षित योग्यता नहीं है। मगर समिति ने विभिन्न दलों से बातचीत की, जिसमें से अनेक दलों ने इस विचार का विरोध किया था, फिर भी समिति ने सुझाव दिया कि देश में सभी चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए।

धन और समय की बर्बादी

इसके पीछे बड़ा तर्क है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर कराए जाने से धन और समय की काफी बर्बादी होती है। इस तर्क को खारिज करने के लिए भी अनेक उदाहरण और तर्क पेश किए गए। मगर सरकार ने इससे संबंधित दो विधेयक संसद में पेश कर दिए। एक विधेयक एक राष्ट्र एक चुनाव को लेकर था और दूसरा केंद्र और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन से संबंधित था।

दो तिहाई बहुमत की जरूरत

संविधान संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में सत्तापक्ष को दो तिहाई बहुमत की जरूरत थी। वह नहीं मिल पाया और स्वाभाविक रूप से दोनों विधेयक पारित नहीं हो सके। अब सरकार ने इन विधेयकों को संयुक्त संसदीय समिति के पास समीक्षा के लिए भेजने का फैसला किया है। निस्संदेह यह संवैधानिक दृष्टि से संवेदनशील मुद्दा है और इसे आनन-फानन पारित करा लेने से आने वाले वक्त में कई तरह की जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है।

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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अलग-अलग चुनाव होने से न केवल खर्च कुछ अधिक होता है, बल्कि निर्वाचन आयोग और सरकार के कामकाज में भी बाधाएं आती हैं। मगर ऐसा करने के लिए जिन सरकारों का कार्यकाल बढ़ाना या घटाना पड़ेगा, उससे संवैधानिक मूल्यों को ठेस पहुंचने का खतरा रहेगा ही। फिर, यह भी कोई गारंटी नहीं कि कहीं मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आएगी।

लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन लागू किए रखना अच्छी बात नहीं

उस स्थिति में कब तक सरकार का काम मुल्तवी रखा जाएगा। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लंबे समय तक किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किए रखना अच्छी बात नहीं होती।

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एक राष्ट्र एक चुनाव संबंधी विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को सौंपने का फैसला उचित है। मगर इसके बावजूद यह अपेक्षा बनी रहेगी कि समिति के समक्ष निष्पक्ष तरीके से बहसें हों, तर्क और सुझाव रखे जाएं। सरकार उन सुझावों को उदारतापूर्वक स्वीकार करे। क्योंकि पिछले कुछ समय से संयुक्त संसदीय समिति के सामने रखे गए कुछ मामले विवादों में देखे गए हैं। उन पर हुई बहसें सवालों के घेरे में रही हैं, विपक्षी सदस्य उन पर सत्तापक्ष की मनमानियों के आरोप लगा कर खुद को अलग करते देखे गए हैं।

सार्थक नतीजा निकलने की उम्मीद

एक साथ चुनाव कराने संबंधी विधेयक को सरकार अगर हार-जीत का मसला न बनाए और अपना हठ छोड़ कर थोड़ा लचीला रुख अपनाएगी, तभी कोई सार्थक नतीजा निकलने की उम्मीद बन सकती है। वैसे ही चुनाव प्रक्रिया पिछले कुछ समय से सवालों के घेरे में है, सरकार को अगर सचमुच धन और समय की बर्बादी की चिंता है, तो उसके दूसरे भी व्यावहारिक उपाय जुटाए जा सकते हैं।