आज के दौर में आधुनिकता का एक पैमाना यह भी प्रचारित किया गया है कि कोई व्यक्ति नई तकनीकी का कितना इस्तेमाल करता है। इस धारणा की जद में वे तमाम लोग हैं, जो जरूरत होने पर या फिर गैरजरूरी तरीके से तकनीक पर निर्भर हो चुके हैं। विडंबना यह है कि इस धारणा का आकर्षण बच्चों को भी अपने दायरे में ले चुका है और उनके कोमल मन-मस्तिष्क को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है।
अरुणाचल प्रदेश के एक स्कूल में जब एक पंद्रह वर्षीय किशोर को मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने की वजह से स्कूल छोड़ने को कहा गया, तो उसके बाद किशोर के आत्महत्या कर लेने की खबर आई। सवाल उठता है कि आए दिन स्मार्टफोन की लत की वजह से बच्चों के भीतर अप्रत्याशित प्रतिक्रिया होने की खबरें आने के बावजूद स्कूल प्रबंधन ने संवेदनशील तरीके से इस मसले का हल निकालना जरूरी क्यों नहीं समझा? स्कूल में मोबाइल का उपयोग प्रतिबंधित होने के बाद भी अगर वह किशोर ऐसा कर रहा था तो यह उसकी मानसिक परिस्थितियों या लत का नतीजा हो सकता है। इस स्थिति में उसे हिदायत देने के क्रम में मनोवैज्ञानिक पहलुओं का ध्यान रखा जाना चाहिए था।
सच यह है कि आज बच्चों और किशोरों के भीतर अगर स्मार्टफोन देखने को लेकर अतिरेक की हद तक व्यस्तता देखी जा रही है तो इसका कारण मनोविज्ञान ही है। सिमटे परिवार और कामकाजी व्यस्तता के दौर में बच्चों के साथ घुलने-मिलने और खेलने के लिए अभिभावकों के पास समय नहीं है और बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन देकर अभिभावक सोचते हैं कि उनका बच्चा आधुनिक और अद्यतन हो रहा है। मगर उसे जरूरत या फिर गैरजरूरी होने पर भी लगातार देखते रहने पर बच्चे का कोमल मन-मस्तिष्क एक तरह के सम्मोहन का शिकार हो जाता है और उसी से उसकी मानसिक परिस्थितियां संचालित होने लगती हैं। वह मोबाइल के स्क्रीन के प्रभाव में इस हद तक आ जाता है कि उसे छोड़ने पर उसका विवेक काम करना बंद कर सकता है और ऐसी स्थिति में कई बार वह खुद को नुकसान पहुंचा लेता है। इसलिए अगर कोई बच्चा इस परेशानी का शिकार हो तो उसके प्रति सख्ती के बजाय संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक तौर-तरीकों का सहारा लेना चाहिए।