तमिलनाडु में हिंदी के विरोध का इतिहास वर्षों पुराना है। देश को आजादी मिलने से पहले ही हिंदी विरोधी आंदोलनों को हवा मिलती रही है। ये आंदोलन कभी उग्र, तो कभी हिंसक भी हुए। वर्ष 1937 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य किया, तो इसका कड़ा विरोध हुआ। उस समय हुए आंदोलन से ही द्रविड़ राजनीति की बुनियाद पड़ी। इसके बाद तो हिंदी विरोध के नाम पर लगातार आंदोलन और अभियान चलाए गए। इसमें साठ के दशक में हुए आंदोलन को याद किया जाता है।

यह विरोध तब शांत हुआ, जब राजभाषा अधिनियम में संशोधन हुआ। मगर यह दुखद ही है कि हिंदी विरोध का सिलसिला आज भी जारी है। जब भी हिंदी को लेकर कोई चर्चा शुरू होती है, उसका तत्काल विरोध शुरू हो जाता है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने केंद्र पर राज्य में हिंदी थोप कर ‘भाषा युद्ध के बीज’ बोने का आरोप लगाया है। किसी भी अन्य भाषा के हावी नहीं होने देने का अपना रुख जता कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे द्विभाषी नीति से आगे बढ़ने को तैयार नहीं।

देश के हर कोने में मिल जाते हैं हिंदी बोलने वाले लोग

सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देकर ही हम देश की सांस्कृतिक एकता मजबूत कर सकते हैं। हिंदी बोलने वाले लोग देश के हर कोने में मिल जाते हैं। कोई राज्य अगर अपनी मातृभाषा को महत्त्व देता है, तो उसकी भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। मगर किसी राज्य विशेष का नागरिक दूसरे राज्यों में जाता है, तो हिंदी के बिना उसका काम नहीं चलता। भाषाएं तो एक दूसरे जुड़ कर ही आगे बढ़ती हैं।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले को लेकर चल रही सियासी बयानबाजी के बीच स्टालिन का विरोध नाहक ही है कि हिंदी से उनकी मातृभाषा नष्ट हो सकती है। दरअसल, उन्होंने अपने स्वर तीखे करते हुए साफ कर दिया है कि वे उन्हीं पुराने आंदोलनों के वशंज है, जिसमें हिंदी को लेकर उपेक्षा का गहरा भाव है। स्टालिन यह भूल गए हैं कि हिंदी दिलों को जोड़ने की भाषा है। यह आज भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में समझी और बोली जाती है।