महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा से जुड़े श्रमिक लगातार बेरोजगार हो रहे हैं। यह सिलसिला चार वर्षों से जारी है। इस दौरान कई आरोप लगे और सरकार ने सफाई भी दी। मगर अब केंद्र ने अंतत: स्वीकार कर लिया है कि वर्ष 2022 से 2024 के मध्य एक करोड़ पचपन लाख से अधिक मजदूरों के नाम हटा दिए गए हैं। आश्चर्य है कि करोड़ों नागरिकों को हर महीने प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज तो दिया जा रहा है, लेकिन काम नहीं।

यह निराशाजनक है कि जो लाखों श्रमिक काम कर रहे थे, अब वे खाली बैठ गए हैं। मनरेगा के माध्यम से प्रतिवर्ष ग्रामीण इलाकों में रोजगार का सृजन किया जाता है। इस योजना में सरकार हर वर्ष बड़ा निवेश करती है। वित्तवर्ष 2024-25 में ही छियासी हजार करोड़ रुपए की राशि आबंटित की गई। यह समझ से परे है कि इतना बड़ा बजट रखने के बावजूद इस योजना से जुड़े श्रमिक क्यों हटाए जा रहे हैं। जबकि संवैधानिक प्रतिबद्धता जताई गई है कि मनरेगा के जरिए ग्रामीण भारत के नागरिकों को देश के विकास से जोड़ा जाएगा। शहरों की तरह गांवों में भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।

ग्राम प्रधानों और रोजगार सेवकों की मिलीभगत से बर्बाद हो गई मनरेग

मनरेगा का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण परिवारों के वयस्क सदस्यों को साल में सौ दिन रोजगार देना था। मगर केंद्र की यह महत्त्वाकांक्षी योजना धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती गई। धांधली होने लगी, फर्जी कार्ड बनने लगे। यह दुखद ही है कि ग्रामीण बेरोजगारों के लिए धरातल पर उतारी गई योजना पंचायतों, ग्राम प्रधानों और रोजगार सेवकों की मिलीभगत के कारण बर्बाद हो गई।

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‘जाब कार्ड’ बनने पर भी श्रमिकों को पता नहीं होता कि उनके खाते में पैसा आया भी कि नहीं। योजना का संचालन कर रहे लोगों के फर्जीवाड़े का ही नतीजा है कि वित्तवर्ष 2023-24 में 85 लाख कार्ड हटा दिए गए थे। यह कोई नई बात नहीं, इससे पहले भी कई राज्यों से मनरेगा सूची से नाम हटाए जाते रहे हैं। बजट राशि भी घटाई जाती रही है। मगर यह कोई उचित रास्ता नहीं कहा जा सकता। सरकार को इसे दुरु स्त करने का तरीका सोचना चाहिए, न कि इसमें कटौती का। अगर यही क्रम रहा तो इस योजना का औचित्य ही क्या रहेगा?