फिल्म अभिनेता संजय दत्त उर्फ संजू बाबा की जेल से रिहाई पर लगभग समूचे भारतीय मीडिया का उनकी बलैयां लेने और मंगलाचरण में लग जाना हैरान करने वाला है। इस अभिनेता के परिजनों, मित्रों, प्रशंसकों या फिल्मोद्योग से जुड़े लोगों का खुश होना तो स्वाभाविक है, लेकिन लगभग तमाम टीवी चैनलों, अखबारों और सोशल मीडिया में जैसा उत्साह छलका, वह समझ से परे है। आखिर संजय दत्त कौन-सा महान काम करके या पवित्र मकसद के लिए सजा भुगत कर लौटे हैं जो उन पर इस तरह बलिहारी हुआ जाए? सब जानते हैं कि मुंबई में 1993 में दो सौ सत्तावन बेकसूरों की जान लेने वाले सिलसिलेवार बम धमाकों की साजिश के आरोप में टाडा कानून के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया था। बाद में हालांकि धमाकों की साजिश का आरोप हटा लिया गया लेकिन इन विस्फोटों में शामिल आतंकवादियों से एके-56 राइफल जैसा अत्यंत घातक हथियार लेकर छुपाने के जुर्म में शस्त्र अधिनियम के तहत सर्वोच्च अदालत ने उन्हें पांच साल की सजा सुनाई थी। तमाम तिकड़में भिड़ाते हुए बार-बार पेरोल हासिल करके सजा भुगतने के बाद संजय दत्त का जेल से बाहर आना क्या मीडिया के लिए इतनी बड़ी उपलब्धि है कि पेशेगत मर्यादा भूल कर उनका धूमधाम से स्वागत किया जाए?

हैरत की बात यह भी है कि उनकी रिहाई के एक-दो दिन पहले से ही टीवी चैनलों ने विशेष बुलेटिन प्रसारित करने शुरू कर दिए थे। मीडिया के अनुराग का यह सिलसिला रिहाई के दिन उनके नाटकीय अंदाज में जेल से बाहर आने, धरती छूने, तिरंगे को सलामी देने, सिद्धिविनायक मंदिर और नरगिस दत्त की कब्र पर जाकर फूल चढ़ाने के बाद भी छोटी-छोटी गतिविधियों की कवरेज तक जारी है। सोशल मीडिया पर भी सिने जगत की तमाम बड़ी हस्तियों के आशीर्वचन बरस पड़े और उन्हें ‘लाइक’ तथा अग्रसारित करने की होड़ लग गई। इसे एक लोकप्रिय अभिनेता के प्रति जन-जिज्ञासा शांत करने की मीडियाई मजबूरी के खाते में डाल कर कंधे उचका देना मीडिया के व्यापक सरोकारों से नजरें चुराना है, जो ज्यादा चिंताजनक है।
यह भी विडंबना है कि जो मीडिया दिन-रात सबको आईना दिखाने का दंभ पाले रहता है वह अपने यहां चिराग तले मौजूद घने अंधेरों से नजरें चुराए रहता है। खबरों-चर्चाओं को अपने व्यावसायिक स्वार्थों के मुताबिक रंग देना अथवा दिखाना-न दिखाना आम हो चला है। विज्ञान और तार्किकता के दौर में भी भूत-प्रेत, टोने-टोटके, अंधविश्वास आदि दिखा कर टीआरपी बटोरने में संकोच नहीं किया जाता। खबरों में क्या और कितना दिखाया जाए, यह परिभाषित बेशक न किया गया हो मगर उसकी मर्यादाएं-सीमाएं खुद मीडिया जगत के भीतर तय हो जाएं तो क्या हर्ज है! इस मामले में सिने संसार की तर्ज पर दर्शकों-पाठकों की मांग के मुताबिक सामग्री परोसने का तर्क वाजिब नहीं कहा जा सकता।

खबरों की दुनिया को मनोरंजन जगत के तराजू से तौलना अनुचित है। मीडिया या सूचना संसार के सरोकार ‘मन बहलाने’ से कहीं आगे समाज और मानवता के व्यापक हितों की हिफाजत तक जाते हैं। किसी अभिनेता-अभिनेत्री पर लट््टू होकर इन सरोकारों की अनदेखी कतई नहीं की जानी चाहिए। मीडिया द्वारा विभिन्न क्षेत्रों के खलनायकों को नायकों सरीखी तवज्जो देना प्रकारांतर से उन्हें नायक बनाना है, जो ज्यादा खतरनाक है। किसी मशहूर हस्ती की वेशभूषा, अदाओं या अंदाज पर फिदा होकर अपने दायित्वों को भूल जाना आम दर्शकों-पाठकों के मन में मीडिया की प्रतिष्ठा को ठेस ही पहुंचाएगा।