भाषा पर राजनीति इन दिनों बढ़ गई है। कुछ दिनों पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने राज्य में हिंदी थोपने और प्रादेशिक भाषा को नष्ट करने का आरोप केंद्र पर लगाया था। यह विवाद ठंडा भी नहीं हुआ था कि अब मराठी को लेकर सियासत गरमा गई है। संघ के नेता सुरेश भैया जी जोशी का यह बयान सुर्खियों में है कि मराठी मुंबई की भाषा है और बाहरी लोगों और अन्य भाषाएं बोलने वालों को भी इसे समझना और सीखना चाहिए। जबकि एक दिन पहले ही उन्होंने कहा था कि मुंबई की कोई एक भाषा नहीं।

लोगों के आने-जाने से हर राज्य में भाषा का सौंदर्य समृद्ध होता है

कोई दो मत नहीं कि महाराष्ट्र और मुंबई में मराठी को राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखा जाता है। यहां की राजनीतिक अस्मिता इसी से तय होती है। मगर यह किसी को नहीं भूलना चाहिए कि भारत विविध संस्कृतियों और भाषाओं वाला देश है। लोग एक से दूसरे राज्य में रोजी-रोटी के लिए जाते हैं, तो अपने साथ अपनी संस्कृति और भाषा-बोली भी साथ लेकर जाते हैं। हर राज्य में भाषा का सौंदर्य इसी से समृद्ध होता है। इसका उदाहरण हम मुंबई में देख सकते हैं।

मुंबई कई संस्कृतियों और विविध पहचान वाला शहर

सवाल है कि संघीय ढांचे में रहते हुए हम यह कैसे कह सकते हैं कि दूसरे राज्य से आया व्यक्ति अनिवार्य रूप से संबंधित प्रदेश की भाषा बोले और सीखे? निस्संदेह मराठी महाराष्ट्र की आधिकारिक भाषा है। वहीं मुंबई कई संस्कृतियों और विविध पहचान वाला शहर है। यहां प्रवासियों की संख्या बढ़ने के साथ हिंदी बोलने वालों की संख्या बढ़ी है। क्या यह राजनीति इसी वजह से है?

भैया जी जोशी ने बेशक सफाई दे दी हो, लेकिन उनके बयान पर विवाद थमा नहीं। वे अपने ही बयान को लेकर जिस तरह दोहरी स्थिति में हैं, उससे लगता है कि मराठी बनाम गैर-मराठी की राजनीति को हवा दी जा रही है। स्वाभाविक रूप से विपक्ष ने बांटने की राजनीति करने का आरोप लगा कर उन्हें घेरा है। महाविकास अघाड़ी के सभी दल एकजुट हो गए हैं। एक भाषा को संरक्षण तभी मिलता है, जब हम दूसरे लोगों की भाषाओं का भी सम्मान करते हैं। भाषा की जड़ें सामाजिक व्यवहार और सद्भाव से ही निर्धारित होती है, विवाद से नहीं।