धीरे-धीरे कोयला घोटाले की आंच बहुत रसूख वाले लोगों तक पहुंच गई है, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत ने उनके अलावा उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला और पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख को भी आरोपी बनाया है।

नरसिंह राव के बाद मनमोहन सिंह दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री हैं जिन्हें भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत आरोपी के तौर पर न्यायिक कार्यवाही का सामना करना होगा। नरसिंह राव अदालत से बरी हो गए थे। मनमोहन सिंह को भी भरोसा है कि वे अपनी बेगुनाही साबित कर देंगे। यह सही है कि समन जारी होने मात्र से कोई दोषी नहीं करार हो जाता। इस न्यायिक कार्यवाही का अंजाम क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। पर निश्चय ही मनमोहन सिंह की छवि को जैसा नुकसान पहुंचा है वैसा शायद ही पहले कभी हुआ हो।

वे जनाधार वाले राजनेता कभी नहीं रहे। उनकी सबसे बड़ी पूंजी ईमानदार होने की उनकी छवि ही रही। इसे भुनाने में कांग्रेस ने कभी कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन क्या शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति के लिए सिर्फ निजी तौर पर ईमानदार रहना काफी है? फिर, मनमोहन सिंह तो दस साल तक प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने राज-काज को ईमानदार बनाने के लिए क्या किया? उलटे उनके कार्यकाल में कई बड़े घोटाले हुए, और इसकी प्रतिक्रिया में देश में एक बड़ा भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन खड़ा हुआ।

प्रधानमंत्री रहते हुए एक बार पत्रकार-वार्ता में उन्होंने घोटालों के लिए गठबंधन का रोना रोया था। शायद उनका इशारा द्रमुक के ए राजा की तरफ रहा हो, जिनके संचारमंत्री रहते हुए 2-जी घोटाला हुआ था। मगर शुरू में इस पर उनकी सरकार की प्रतिक्रिया कैसी थी? इसे घोटाला न मानने और कैग की रिपोर्ट को निराधार ठहराने के लिए तब के कई केंद्रीय मंत्री और कांग्रेसी नेता मुखर हो गए थे।

फिर, कोयला घोटाला तो तब चरम पर पहुंचा जब मंत्रालय की कमान खुद मनमोहन सिंह के पास थी। विशेष अदालत ने पाया कि हिंडालको को कोयला खदान आबंटित करने के लिए मान्य प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई, हिंडालको को आबंटन में ‘समायोजित’ करने के लिए दो नौकरशाहों की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया गया। इससे हिंडालको को जहां छप्परफाड़ फायदा हुआ, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नेवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन लिमिटेड को घाटा उठाना पड़ा।

अदालत ने यह भी कहा है कि प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि आपराधिक षड्यंत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री और तत्कालीन कोयला सचिव को भी संलिप्त किया गया। बिड़ला ने अपनी कंपनी के पक्ष में आबंटन सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय भूमिका निभाई और इसके लिए नौकरशाही और सरकार में अपने संपर्क का इस्तेमाल किया।

जाहिर है, सारा मामला पूंजी, नौकरशाही और राजनीति के एक चिंताजनक गठजोड़ की तरफ इशारा करता है। यह भी गौरतलब है कि सीबीआइ ने इस मामले को बंद करने का अनुरोध किया था। पर अदालत ने उसकी रपट नामंजूर कर दी। अदालत के निर्देश के चलते ही मनमोहन सिंह से पूछताछ संभव हुई, और फिर बात समन जारी करने तक पहुंची। आगे क्या होगा वह न्यायिक कार्यवाही का विषय है।

पर सवाल है कि ईमानदारी का दम भरने के बावजूद बड़े-बड़े घोटाले क्यों हुए? एक ईमानदार प्रधानमंत्री पारदर्शिता और नियम-कायदों का पालन सुनिश्चित क्यों नहीं कर सका? अपना दूसरा कार्यकाल समाप्त होने के चार-पांच महीने पहले मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। इतिहास उन्हें जो भी आसन दे, पर अनियमितताओं के प्रति आंख मूंदे रहने के दोष से उन्हें शायद ही बरी कर पाए।

 

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