सादगी, सौम्यता, मितभाषिता और शांत स्वभाव उनके व्यक्तित्व की खासियत थी। उन्हें सदा सच्चाई पर यकीन रहा। इसीलिए उनका व्यक्तिगत जीवन हमेशा बेदाग रहा। वे व्यावहारिक रूप से जमीनी राजनेता नहीं थे, मगर देश को समृद्धि के शिखर पर पहुंचाने के प्रति उनका समर्पण अभूतपूर्व था। वे जीते-जी देश की आर्थिक स्थितियों को लेकर चिंतित देखे जाते रहे। वे अपने को इसके लिए देश का कर्जदार मानते रहे कि विभाजन के बाद एक बेघर हुए आदमी को सरकार के शीर्ष स्तर तक पहुंचाया। सामान्य कपड़ा व्यवसायी परिवार में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा के बल पर कैंब्रिज और आक्सफोर्ड जैसे दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में दाखिला लेकर अर्थशास्त्र में ऊंची डिग्रियां हासिल कीं।
फिर वे वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार, वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार, योजना आयोग के सदस्य के रूप में आर्थिक नीतियों के मामलों में सरकार का सहयोग करते रहे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में अपनी सराहनीय सेवाएं दीं। उनके कार्यों की पहचान सबसे अधिक तब हुई जब वे प्रधानमंत्री के आर्थिक मामलों के सलाहकार नियुक्त हुए।
वह ऐसा दौर था, जब भारत की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। विदेशी मुद्रा भंडार काफी खाली हो चुका था। वह पीवी नरसिंहराव का कार्यकाल था। उनसे पहले चंद्रशेखर के कार्यकाल में सोना गिरवी रख कर उर्वरक आदि का इंतजाम करना पड़ा था। ऐसे वक्त में मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण का सुझाव दिया था। लाइसेंस राज खत्म करने और करों में छूट जैसे उपाय आजमाए गए। उसका नतीजा यह हुआ कि आर्थिक विकास दर कुलाचें भरने लगी। विदेशी निवेश आना शुरू हो गया।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत का रुख करने लगीं। इस तरह न केवल महंगाई पर रोक लगी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ी, बल्कि विदेशी मुद्रा भंडार भी भरना शुरू हो गया। फिर उन्हें वित्तमंत्री बनाया गया और निष्ठा के साथ निरंतर वे आर्थिक सुधारों पर काम करते रहे। यह कहने में किसी को संकोच नहीं कि उन्होंने वित्तमंत्री रहते जो आर्थिक ढांचा तैयार किया था, उसी पर विकास की मीनारें आगे भी खड़ी होती रहीं। बीच में वे जरूर सात-आठ वर्षों तक सरकार से बाहर रहे, पर राज्यसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर आर्थिक नीतियों को लेकर अपनी सलाह हमेशा देते रहे। फिर प्रधानमंत्री बने, तो दो पूरे कार्यकाल तक उन्होंने देश के आर्थिक ढांचे को इस कदर मजबूत बना दिया कि मंदी के हिचकोले उसमें दरार नहीं डाल सके।
हालांकि प्रधानमंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल विवादों से भरा रहा। उनके कई मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगे, उन्हें सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहा जाने लगा। मगर कभी भी वे सच्चाई से डिगे नहीं। बेशक वे कम बोलते थे और लोगों को लगता था कि वे साहसी नहीं हैं, मगर उन्होंने अपनी सरकार को दांव पर लगा कर जिस तरह अमेरिका के साथ परमाणु करार किया, वह उनके साहस का बड़ा उदाहरण था। फिर उन्होंने सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार और अंतिम दिनों में लोकपाल जैसे कानून बना कर साबित कर दिया कि उनकी निष्ठा आम लोगों के जीवन में बेहतरी और शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने के प्रति है। यही वजह है कि आज उनके जाने पर वे लोग भी उनके कार्यों की प्रशंसा कर रहे हैं, जो कभी उनके आलोचक हुआ करते थे।