इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी मणिपुर में हिंसा की शुरुआत के डेढ़ वर्ष से ज्यादा बीत चुके हैं, मगर आज भी वहां अराजकता बेलगाम और सरकार लाचार खड़ी दिखती है। आखिर क्या वजह है कि हर कुछ रोज बाद हिंसा की बड़ी घटनाएं एक तरह से सरकार के सामने चुनौती देती हुई लग रही हैं और उस पर काबू पाने में वहां का प्रशासन पूरी तरह से नाकाम है। कुछ दिन पहले वहां गंभीर हिंसक घटनाओं का नया दौर फिर से शुरू हो गया है और आम लोगों की जान जा रही है।
हाल ही में एक महिला की हत्या करके उसका घर जला दिया गया था। उसके बाद एक अन्य शिविर से छह लोग लापता हो गए। बाद में उनके शव मिलने की खबरें आईं। अब स्थानीय लोगों के बीच सरकार की इस व्यापक नाकामी के खिलाफ गुस्सा भड़क गया है और इस तरह हिंसा का दायरा अब और फैलता जा रहा है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वहां कुछ लोगों ने अब विधायकों और मंत्रियों के घरों में आग लगाना शुरू कर दिया है। शनिवार और रविवार को कई विधायकों और मंत्रियों के घरों पर लोगों की भीड़ ने हमला किया, आग लगा दी और बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ की।
कुकी और मैतेई समुदायों के बीच विवाद
यह समझना मुश्किल नहीं है कि कुकी और मैतेई समुदायों के बीच लंबे समय से चल रही हिंसा के बाद अब लोगों का गुस्सा सरकार खिलाफ भड़क रहा है और नेता भी हमलों के निशाने बनने लगे हैं। निश्चित रूप से यह स्थिति किसी भी हाल में उचित नहीं मानी जा सकती, मगर ताजा हिंसा से यही लगता है कि इसमें शामिल दोनों समुदाय अब शायद इससे ऊब रहे हैं और उनका आक्रोश सरकार और राजनीतिक तबके के खिलाफ फूट रहा है। सवाल है कि किसी भी सरकार को अपना समूचा सुरक्षा तंत्र झोंकने के बाद हिंसक घटनाओं पर काबू पाने में कितना वक्त लगना चाहिए?
लापरवाही की आग, लगातार हो रहे हादसों के बाद भी नहीं हो रहा इंतजाम
पिछले वर्ष मई महीने में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने के सवाल पर दो समुदायों के बीच जिस हिंसक टकराव की शुरुआत हुई थी, उसमें अब तक सवा दो सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। राज्य सरकार की पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के साथ-साथ सेना तक ने वहां मोर्चा संभाला। सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार की ओर से शांति कायम करने के लिए कई स्तर पर कवायदें हुईं। मगर हालत यहां तक पहुंच गई है कि अराजकता पर काबू पाना तो दूर, अब मंत्री-विधायकों के घर भी हिंसा की आग का शिकार होने लगे हैं।
गृह युद्ध जैसे हालात
कहने को शांति कायम करने के मकसद से दोनों पक्षों के बीच बातचीत की प्रक्रिया शुरू कराने का दावा कई बार किया गया, लेकिन आज भी वहां जिस तरह लोगों के घरों पर हमले किए जा रहे हैं, उसमें किसी की हत्या कर दी जा रही है, उससे साफ है कि सरकार की कोशिशें या तो बेमन से की गईं या फिर उसके पीछे कोई स्पष्ट दृष्टि और इच्छाशक्ति नहीं थी। हैरानी की बात यह है कि अब भी सरकार एक तरह से ‘सब कुछ सामान्य होने’ की मुद्रा में बेफिक्र दिख रही है। वरना क्या कारण है कि राज्य में गृह युद्ध की हालत लंबे वक्त से कायम है, लेकिन केंद्र की ओर से भी राज्य सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
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अब फिर सीआरपीएफ की पचास कंपनियां भेजने का फैसला किया गया है, मगर वहां की हिंसा अब जिस शक्ल में पहुंच गई लगती है, उसके लिए अब बहाने बनाने के बजाय तात्कालिक तौर पर हिंसा को रोक कर उसकी जड़ों को सुलझाने की जरूरत है।