इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले से बननी शुरू हो गई थी। इससे कांग्रेस को स्वाभाविक रूप से पुनर्जीवन मिला है। इसे लेकर वह काफी आशान्वित भी थी। सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत से कहीं अधिक सीटें उसे मिली हैं, इस तरह उसके भविष्य को लेकर फिलहाल कोई आशंका नहीं है।

इन नतीजों का विश्लेषण कई लोग अगले साल होने वाले आम चुनाव पर पड़ने वाले असर के पैमाने के रूप में कर रहे हैं। मगर लोकतंत्र में हर चुनाव की स्थितियां भिन्न होती हैं और उन्हें परस्पर जोड़ कर देखना कई बार धोखादेह साबित हो सकता है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कर्नाटक चुनाव परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी की तरह आए हैं।

उसने चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंक दी थी, मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने का हर तरीका आजमाने की कोशिश की, मगर कामयाब नहीं हो पाई, तो उसकी वजहें भी साफ हैं। दरअसल, लोगों ने पहले ही मन बना लिया था कि भाजपा को सत्ता में नहीं आने देना है। जब मतदाता का ऐसा रुझान होता है, तो राजनीतिक दल चाहे, जितने भी तरीके आजमा लें, जितनी भी ताकत झोंक लें, उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाती। हिमाचल प्रदेश में भी यही हुआ।

दरअसल, कर्नाटक में भाजपा सरकार के कामकाज को लेकर लोग खुश नहीं थे। सबसे अधिक नाराजगी भ्रष्टाचार की वजह से थी। चालीस प्रतिशत कमीशन की सरकार का जुमला उस पर काफी भारी पड़ा। सत्तापक्ष के कई नेता भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त पाए गए थे। फिर बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा भी भाजपा के खिलाफ गया।

ये कुछ दाग ऐसे थे, जिन्हें धोना भाजपा के लिए आसान नहीं था, इसलिए उसने विकास का मुद्दा उठाया ही नहीं, जिसका बखान वह दूसरे राज्यों के चुनाव में करती रहती है। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने का प्रयास करती रही, जो उसके खिलाफ ही गया। इसके उलट कांग्रेस बुनियादी और स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रही। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के समय ही कर्नाटक के लोगों का रुझान पता चल गया था।

फिर सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार जैसे कद्दावर नेताओं ने संगठित होकर जिस तरह काम किया, उसका प्रभाव पड़ा और कांग्रेस को उसका लाभ मिला। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का प्रभाव भी काम आया। इसके उलट, भाजपा में शुरू से ही असंतोष नजर आने लगा था। उसके कई वरिष्ठ नेता चुनाव के समय पार्टी छोड़ गए।

हालांकि कुछ लोग इन नतीजों को जातीय समीकरण के आधार पर हल करते देखे जा रहे हैं, मगर इसमें जद (सेकु) की फजीहत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल, कांग्रेस को सभी समुदायों का मत मिला। इस तरह स्पष्ट है कि कर्नाटक में कांग्रेस ने फिर से अपनी पुरानी जमीन वापस पाने में कामयाबी हासिल की है। उसे न केवल अल्पसंख्यकों, बल्कि अन्य पिछड़ी जातियों और दलित वर्ग का भी समर्थन हासिल हुआ है।

इस नतीजे के पीछे केंद्र सरकार की नीतियों और कामकाज का असर भी देखा जा सकता है। इसलिए कई लोग इसके आधार पर आगामी आम चुनावों का आकलन कर रहे हैं। मगर कर्नाटक जैसी स्थितियां हर राज्य में नहीं हो सकतीं और न वैसा मिजाज हर राज्य के मतदाता का हो सकता है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा पर लोगों का अब भी भरोसा बना नजर आया है। पर स्पष्ट है कि भाजपा के लिए अब पहले की अतिउत्साह का समय नहीं रह गया है।