अंतरिक्ष में पांव रख चुके भारत में आज भी कई तरह की रूढ़ियां आम दिखती हैं, तो इसकी वजह यही है कि हम कई मामलों में मानसिक रूप से दशकों पीछे जी रहे हैं। अन्यथा एक प्रगतिशील समाज में और वह भी स्कूल जैसी जगह पर माहवारी की जांच के नाम पर स्कूली छात्राओं के कपड़े नहीं उतरवाए जाते। इससे अधिक अफसोसनाक बात क्या हो सकती है कि ठाणे जिले के जिस विद्यालय में पढ़ने वाली बच्चियों को भावनात्मक रूप से ठेस पहुंचाया गया, वहां प्रधानाचार्य खुद एक महिला हैं।

परिसर में उनके रहते यह सब हुआ। विचित्र यह है कि शौचालय में फर्श पर खून के धब्बे होने की जानकारी के बाद जहां प्रधानाचार्य और अन्य शिक्षिकाओं को बेहद संवेदनशील तरीके से पेश आने की जरूरत थी, वहां बच्चियों को न केवल स्कूल सभागार में बुलाया गया, बल्कि सार्वजनिक रूप से उनसे यह पूछा गया कि क्या उनमें से कोई मासिक धर्म चक्र से गुजर रही है। जिन छात्राओं ने इनकार किया, उनकी अभद्र तरीके से जांच की गई।

निस्संदेह बच्चियों से यह व्यवहार अक्षम्य है, इसलिए महाराष्ट्र सरकार ने उचित कार्रवाई की और इस मामले में प्रधानाचार्य सहित एक महिला कर्मी को गिरफ्तार किया गया। पूरे मामले की जांच के आदेश भी दिए गए है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि महिलाओं के जिस प्राकृतिक चक्र या अवस्था को समझने-जानने और बच्चियों को उचित तरीके से शिक्षित करने की जरूरत है, वहां स्कूल जैसी जगह में भी उनके साथ ऐसा बर्ताव किया जाता है, जिससे इस अवस्था के प्रति कम उम्र की लड़कियों के भीतर नाहक आशंका पैदा होती है।

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ठाणे के स्कूल में माहवारी की जांच के नाम पर जिन बच्चियों के साथ अवांछित हरकत की गई, उनके मन-मस्तिष्क पर इसके असर का अंदाजा लगाया जा सकता है। पारंपरिक जड़ता के घेरे में घरों-परिवारों में महावारी के दौरान लड़कियों के प्रति कई तरह के दुराग्रह पहले ही मौजूद रहे हैं। जबकि यह सिर्फ स्वास्थ्य से जुड़ा विषय है। अफसोसनाक यह है कि जब किसी स्कूल की प्रधानाचार्य और शिक्षिकाओं की समझ ही इस विषय पर पूर्वाग्रहों से भरी है, तो जड़ मानसिकता वाले समाज से क्या उम्मीद की जाएगी।