किसी भी सरकार में मंत्री या अन्य उच्च पद पर बैठे व्यक्ति की यह अनिवार्य जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी राय जाहिर करते हुए संयमित भाषा का इस्तेमाल करे। यों यह दायित्व सभी विवेकवान आम नागरिकों का भी होता है, लेकिन इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कोई नेता सार्वजनिक रूप से भी ऐसी बात बोलने से नहीं हिचकता, जो न केवल हर दृष्टि से अनुचित है, बल्कि इससे खुद उसकी गरिमा भी कम होती है। मध्य प्रदेश सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री ने राजा राममोहन राय के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए यह सोचना तक जरूरी नहीं समझा कि वे न केवल उनके योगदान को खारिज कर रहे हैं, बल्कि खुद अपनी समझ की सीमा भी जाहिर कर रहे थे।

राममोहन राय को देश जिस रूप में जानता रहा है, उसमें स्वाभाविक ही ऐसे बयान के लिए मंत्री की तीखी आलोचना की गई। मामले के तूल पकड़ने के बाद भले ही मंत्री ने अपने शब्दों के लिए माफी मांग ली, लेकिन इससे एक बार फिर यही जाहिर हुआ कि महज सुर्खियों में बने रहने के लिए कैसे कुछ नेता किसी मसले पर विवाद खड़ा करने से नहीं हिचकते।

बड़े समाज सुधारक रहे हैं राजा राममोहन राय

सवाल है कि राज्य सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री के पद पर होने के बावजूद क्या उन्हें इतिहास के उस अध्याय के बारे में जानकारी नहीं थी कि राममोहन राय अपने किन योगदानों के लिए जाने जाते हैं। भारत में समाज सुधार आंदोलन में पुनर्जागरण से लेकर सती प्रथा को खत्म कराने के लिए विख्यात राममोहन राय के बारे में एक मंत्री किसी भी स्थिति में अगर आपत्तिजनक राय जाहिर करता है, तो उसे कैसे देखा जाना चाहिए? क्या यह अपने ही नायकों को अपमानित करने का प्रयास नहीं माना जाएगा?

जघन्य अपराधों में बढ़ी नाबालिगों की संलिप्तता, गंभीर मामलों में कानून अस्पष्ट और लचर होने का ही परिणाम

अफसोस की बात यह है कि इस तरह बिना सोचे-समझे बयान देने वाले मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री अकेले नहीं हैं। इस तरह बेलगाम बोल का सहारा लेकर चर्चा बटोरने वाले नेताओं को न तो अपनी और न ही अपने पद की गरिमा का ध्यान रखना जरूरी लगता है। जबकि आम जनता के मुकाबले किसी ऊंचे पद पर बैठे व्यक्ति की यह जिम्मेदारी ज्यादा हो जाती है कि वह सार्वजनिक विचारों से एक आदर्श सामने रखे, न कि लापरवाह होकर ऐसी बातें बोले, जिसके लिए उसे माफी मांगनी पड़े।