कानून और व्यवस्था कायम रहने का अर्थ यह भी है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग अपराध करने का दुस्साहस नहीं करें। साथ ही, अपराध होने की स्थिति में पीड़ित को न्याय दिलाने में कानून के रखवाले हर स्तर पर सहयोग करें, तत्परता दिखाएं। लेकिन उत्तर प्रदेश के एटा जिले से शुक्रवार को अपहरण और बलात्कार की एक घटना के तीन साल बाद प्राथमिकी दर्ज करने को लेकर जो खबर आई है, वह बताती है कि थानों में बैठी पुलिस कई बार किस तरह रसूखदार लोगों के असर में पीड़ित महिला की शिकायत तक दर्ज नहीं करती है और इस तरह प्रकारांतर से न्याय के रास्ते में अवरोधक बन कर खड़ी हो जाती है।

खबर के मुताबिक, एटा के कोतवाली थाना क्षेत्र में पहले एक कारोबारी के पैसे लूटे गए, उसका अपहरण किया गया। फिर उसकी फिरौती की रकम वसूलने के लिए कारोबारी की पत्नी को बुलाया गया और उसका भी अपहरण करके अठासी दिनों तक बंधक बना कर लगातार सामूहिक बलात्कार किया गया। अव्वल तो उत्तर प्रदेश की पुलिस ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिससे इस तरह का भयावह अपराध न घटित हो, दूसरे, इतने संगीन सामूहिक बलात्कार के अपराध की पीड़ित महिला घटना के बाद इंसाफ की गुहार लगाती हुई दर-दर की ठोकरें खाती रही, लेकिन उसकी प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हो सकी।

जिस राज्य में अपराधियों से निपटने और अपराधों पर काबू पाने के लिए सरकार की ओर से पुलिस को खुली छूट देने का दावा किया जाता है, उसमें यह सब कैसे संभव हुआ? क्या ऐसा इसलिए हुआ कि इस घटना में लिप्त आरोपी भाजपा के एक नेता सहित रसूखदार लोग हैं? जबकि बलात्कार को एक ऐसा संगीन अपराध माना गया है, जिसमें पुलिस की ओर से तुरंत सक्रियता और कार्रवाई अपेक्षित है। इसकी वजह यह भी है कि इसमें सबूतों के नष्ट हो जाने और पीड़ित के मामले के प्रभावित होने की आशंका रहती है। लेकिन इस मामले में हालत यह रही कि लंबे समय तक पीड़ित महिला भटकती रही और आखिर में उसकी प्राथमिकी दर्ज करने के लिए आगरा के उप-पुलिस महानिदेशक को आदेश देना पड़ा।

राज्य में अपराधियों का हौसला तोड़ देने का दावा करने वाली उत्तर प्रदेश पुलिस के काम करने की शैली क्या यही है? गौरतलब है कि इस साल की शुरुआत में आई राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित राज्य बताया गया और वहां महिलाओं के खिलाफ अपराध की सबसे ज्यादा घटनाएं सामने आर्इं। इसी रिपोर्ट के आंकड़े में यह तथ्य भी सामने आया कि देश भर में बलात्कार के मामलों में सजा की दर महज 27.2 फीसद है। सवाल है कि बलात्कार के अपराध और इसकी सजा के मामले में इस तरह की विपरीत स्थिति आखिर क्यों बनी हुई है?

क्या इसकी मुख्य वजह यह नहीं है कि बलात्कार की घटनाओं के बाद प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर जांच करने और आरोपी को दोषी ठहराने तक के मामले में पुलिस का रवैया बेहद असहयोग से भरा रहता है? वजह चाहे रसूखदार लोगों को बचाने या उनके प्रभाव में काम करने का हो, भ्रष्टाचार का हो या फिर कई तरह के बेमानी पूर्वाग्रहों का, इस अपराध के मामलों में पुलिस शायद ही कभी पेशेवर तरीके से काम करती दिखती है। जबकि सच यह है कि बलात्कार के मामलों में सजा आमतौर पर पुलिस की शुरुआती कार्रवाई और जांच में ईमानदारी पर ही निर्भर होती है। जब तक पुलिस महकमे में महिलाओं के खिलाफ इस जघन्य अपराध को लेकर जरूरी संवेदनशीलता का विकास नहीं होता है, तब तक पीड़ित महिलाओं के लिए न्याय पाने का रास्ता मुश्किल बना रहेगा!