कुछ प्रतिभाएं बनती हैं और कुछ पैदा ही होती हैं। वे जैसे संगीत के लिए ही पैदा हुई थीं। जीते-जी किंवदंती बन गर्इं लता मंगेशकर ने जैसी ख्याति, लोकप्रियता और सम्मान पार्श्व संगीत के क्षेत्र में अर्जित किया था, वैसा शायद दुनिया में किसी ने नहीं किया। वे दुनिया भर में बहुत सारे लोगों के लिए प्रेरणा पुंज थीं। उनके व्यक्तित्व से सरस्वती की प्रतिमा उभरती थी। साधना तो सब करते हैं, पर वह उन्हीं में फलीभूत होती है, जिनकी प्रतिभा का आयतन विराट हो। संगीतकार पिता दीनानाथ मंगेशकर भी हैरान हुए थे, जब उन्होंने लता को पहली बार गुनगुनाते सुना।
वे किसी को संगीत सिखा रहे थे, लता ओट में खड़ी सुन रही थीं और फिर उस मुखड़े को गुनगुना दिया था। उसके बाद पिता ने उन्हें संगीत की शिक्षा दी। तेरह साल की उम्र में ही, जब पिता नहीं रहे और परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी कंधे पर आ गई तो लता मंगेशकर ने पार्श्व संगीत का रास्ता चुना और पहले ही गीत से अपनी पहचान छोड़नी शुरू कर दी। कुछ मराठी फिल्मों में अभिनय भी किया, पर वह रास्ता उनका नहीं था, उसे छोड़ दिया। पार्श्व संगीत में उनके स्वर का असर कुछ इस कदर हुआ कि उस जमाने का हर संगीत निर्देशक उनसे गवाने को आतुर हो उठा।
वे हर जमाने के हर संगीतकार की चहेती गायिका थीं। उनसे गीत गवा कर न सिर्फ संगीतकार गर्व का अनुभव करते थे, बल्कि जिन कलाकारों पर उनके गीत फिल्माए जाते, वे भी खुद को धन्य समझते थे। उनकी आवाज के रेशे इतने कोमल, मुलायम और चमकदार थे कि कोई भी गीत उनमें ढल कर जीवंत हो उठता था। यही वजह है कि तीस से अधिक भाषाओं में उन्होंने गीत गाए और हर भाषा में उनका वही असर बना रहा।
उनका उच्चारण और लहजा इतना साफ और सधा हुआ था कि उन्होंने चाहे संस्कृत में गाया या भोजपुरी में, गीत की आत्मा कहीं से भी खंडित नहीं होने पाई। बल्कि कई बार कमजोर गीत और संगीत भी उनके स्वर में ढल कर जीवन पा जाते थे। उन्होंने हर मिजाज के गीत गाए, शास्त्रीय जमीन पर तैयार गीत से लेकर चुलबुले और मजाहिया अंदाज वाले गीत तक। सबमें उनका एक नया रंग खिलता था। उनकी आवाज का ही जादू था कि उन्हें भारतीय कोकिला, स्वर साम्राज्ञी जैसे विशेषणों से नवाजा गया। दुनिया में शायद ही कोई मुल्क हो, जहां उनकी आवाज के दीवाने न मिल जाएं। करीब पचास साल तक मुंबई फिल्मी उद्योग में पार्श्व गायन के क्षेत्र में उन्हीं का साम्राज्य फैला रहा।
उनके नाम से कई कीर्तिमान दर्ज हैं, तो बहुत सारे सम्मान उनके नाम से जुड़ कर खुद धन्य हुए। सबसे अधिक भाषाओं में और सबसे अधिक गीत गाने का कीर्तिमान उन्हीं के नाम दर्ज हुआ। वे पहली ऐसी गायिका थीं, जिनके जीते-जी उनके नाम से संगीत का पुरस्कार शुरू किया गया। देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से उन्हें विभूषित किया गया। पुरस्कार और सम्मानों का आलम तो यह था कि हर कोई उन्हें पुरस्कृत कर गौरव का अनुभव करना चाहता था, पर उन्होंने कई साल पहले घोषित कर दिया था कि उन्हें पुरस्कार देने के बजाय नए कलाकारों को सम्मानित किया जाए। संगीत और संगीतकारों-कलाकारों के प्रति उनकी निष्ठा अटूट थी। इसीलिए उन्होंने समय-समय पर उनके हक की आवाज भी उठाई। संगीत के लिए रायल्टी का मुद्दा उन्होंने ही उठाया था। उनके जाने से ऐसा लगता है, जैसे सरस्वती अंतर्लीन हो गई हैं।