बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में देरी कोई नई बात नहीं है। हालांकि इस समस्या से पार पाने के लिए समय-समय पर सख्ती बरतने का प्रयास होता रहा है, मगर अब तक उल्लेखनीय नतीजे नहीं निकल पाए हैं। यही वजह है कि विलंब से चल रही परियोजनाओं की लागत बढ़ जाती है, जिसका बोझ सार्वजनिक खजाने पर पड़ता है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक डेढ़ सौ करोड़ रुपये से अधिक खर्च वाली चार सौ इकतीस बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की लागत 4.82 लाख करोड़ रुपए से अधिक बढ़ गई है। मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार बीते दिसंबर तक एक हजार आठ सौ बीस ऐसी परियोजनाएं देर से चल रही थीं, जिनमें से चार सौ बत्तीस परियोजनाओं की लागत बढ़ गई है।

ये परियोजनाएं औसतन तीन वर्ष से अधिक की देरी से चल रही हैं। इसके प्रमुख कारणों में भूमि अधिग्रहण में विलंब, पर्यावरण और वन विभाग से मंजूरी मिलने में देरी और बुनियादी संरचना में कमी को बताया गया है। इसके अलावा परियोजना का वित्तपोषण, विस्तृत अभियांत्रिकी को मूर्त रूप देने में देरी, परियोजनाओं की संभावना में बदलाव, निविदा प्रक्रिया और ठेके देने में देरी, उपकरण मंगाने में विलंब, अप्रत्याशित भू-उपयोग में परिवर्तन आदि भी बड़े कारण हैं।

ये सारी वजहें पहले भी बताई जाती रही हैं। इससे निपटने के लिए परियोजना में देरी होने पर ठेकेदार से प्रतिदिन के हिसाब से विलंब शुल्क वसूलने का प्रावधान किया गया। तब माना गया कि इससे परियोजनाएं समय पर पूरी हो सकेंगी और उन पर लागत बढ़ने के खर्च से बचा जा सकेगा। मगर अब भी चार सौ से ऊपर परियोजनाएं अगर तीन वर्ष की औसत देरी से चल रही हैं, तो जाहिर है कि परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले उनके व्यावहारिक पहलुओं का मूल्यांकन ठीक से नहीं किया जाता।

आमतौर पर सड़कों, पुलों आदि जैसी बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं का निर्णय राजनीतिक स्तर पर ले लिए जाते हैं। उनके मूल्यांकन में प्राय: संभावित अड़चनों, मसलन भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण संबंधी मानक, भू-उपयोग आदि को लेकर लापरवाही बरती जाती है। बिना जरूरी मंजूरी के परियोजनाओं के ठेके इस विश्वास के साथ दे दिए जाते हैं कि उन अड़चनों से पार पा लिया जाएगा। इसका नतीजा यह होता है कि कहीं अगर परियोजना के बीच में आने वाले किसी छोटे से हिस्से पर भी किसी ने मुकदमा कर दिया, तो वह तब तक लटक जाती है, जब तक न्यायालय का निर्णय नहीं आ जाता। मुआवजे आदि को लेकर भी विवाद पैदा हो जाते हैं।

यह भी छिपी बात नहीं है कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र की परियोजनाओं में देरी और फिर उनकी लागत बढ़ने के पीछे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। ठेकेदार और वित्तपोषण करने वाले विभाग के बीच अक्सर भुगतान को लेकर रस्साकशी देखी जाती है। समय पर भुगतान न मिल पाने से ठेकेदार काम बीच में छोड़ देते हैं। भुगतान समय पर न मिलने के पीछे अक्सर कमीशनखोरी बड़ा कारण होती है।

इस पर अनेक निर्माण कंपनियां सार्वजनिक रूप से असंतोष प्रकट कर चुकी हैं। परियोजना में विलंब होने का अर्थ है कि उसमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री और सेवाओं की कीमत बढ़ती जाती है। कई बार सक्षम ठेकेदारों को काम न दिए जाने की वजह से भी उनमें जिस ढंग की अभियांत्रिकी का उपयोग अपेक्षित होता है, वह नहीं हो पाता। ये सारे तथ्य किसी से छिपे नहीं हैं, मगर इनमें सुधार के व्यावहारिक उपाय नहीं किए जाते तो जाहिर है, परियोजनाओं को समय पर पूरा कराने की इच्छाशक्ति का अभाव है।