पिछले कुछ समय से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं कि सामान्य बातचीत या सहज हास्यबोध में की गई किसी टिप्पणी को भी अपनी धार्मिक भावना आहत होने का मुद्दा बना लिया जाता है। उससे उठा हंगामा कई बार हिंसक अराजकता में भी तब्दील हो जाता है। एक टीवी चैनल पर चलने वाले हास्य कार्यक्रम के दौरान जब किकू शारदा नाम के कलाकार ने दर्शकों के मनोरंजन के लिए डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की एक फिल्म के छोटे हिस्से की नकल पेश की, तो उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी गई और उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। करीब एक पखवाड़े पहले प्रस्तुत उस कार्यक्रम को लेकर अब विवाद उठा है। इसके बाद जाहिर है किकू को तमाम कानूनी अड़चनों में उलझना पड़ेगा। गौरतलब है कि किकू शारदा की जिस प्रस्तुति के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई, वह एक हास्य कार्यक्रम का हिस्सा थी। उसमें लिखे गए स्क्रिप्ट के मुताबिक किकू को अभिनय करने का निर्देश था। यानी जिस दृश्य पर किकू के खिलाफ मामला बनाया गया, उसमें अकेले उनकी भूमिका नहीं थी। फिर भी, चूंकि प्रत्यक्ष चेहरे वही थे, इसलिए कठघरे में उन्हें खड़ा कर दिया गया। यह ध्यान रखने की बात है कि सिर्फ हंसी पैदा करने के लिए कुछ कहने और मजाक उड़ाने में महीन फर्क है। मामला मंशा का होता है। हो सकता है कि किसी खास प्रस्तुति से किसी मत में आस्था रखने वाले व्यक्ति या समूह की भावनाओं को ठेस पहुंची हो, लेकिन शिकायत के बाद उस प्रस्तुति को लेकर अगर किकू शारदा ने माफी मांग ली तो मामले को खत्म कर देना चाहिए था। खुद राम रहीम ने भी किकू के मांफी मांगने के बाद कोई शिकायत न होने की बात कही। लेकिन किकू फिलहाल जमानत पर हैं और जब तक कानूनी तौर पर मामला वापस नहीं लिया जाता, तब तक उन्हें इसकी प्रक्रिया से गुजरना होगा।
विडंबना है कि किसी व्यक्ति या समूह की सामान्य बातचीत के किसी हिस्से से दूसरे समूह की भावनाएं आहत हो जाती हैं। पिछले कुछ सालों के दौरान यह प्रवृत्ति बढ़ी और जटिल हुई है। गाहे-बगाहे ऐसी खबरें आती रहती हैं जब किसी बात को धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने या भड़काने का जरिया बना कर अराजकता की हद तक हंगामा किया गया। बांग्लादेश में अपनी मान्यता से इतर राय जाहिर करने वाले कई ब्लॉगरों को कट्टरपंथियों ने मार डाला। भारत में भी अंधविश्वास के खिलाफ अभियान चलाने वाले नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की बातों को धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के तौर पर देखा गया और उनकी हत्या कर दी गई। विडंबना यह भी है कि एक आधुनिक और उदार लोकतंत्र में भी किसी व्यक्ति की निजी राय को कानूनन धार्मिक भावनाएं भड़काने के तौर पर देख लिया जाता है और इस आरोप में उसे सख्त सजा भी मिल सकती है। यह सही है कि धार्मिक मान्यताएं लोगों की भावनाओं से जुड़ जाती हैं और उस पर कोई विपरीत टिप्पणी व्यक्ति को ठेस पहुंचा सकती है। लेकिन सवाल है कि आखिरी तौर पर यह तय करने का पैमाना क्या होगा कि एक व्यक्ति की राय दूसरे की भावनाओं को आहत नहीं करेगी! कायदे से किसी समाज के आधुनिक होने की शर्त यही होनी चाहिए कि वह अपनी मान्यताओं से भिन्न, यहां तक कि खुद पर जाहिर की जाने वाली सामान्य राय को लेकर कितना उदार और सहिष्णु है।