वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बुधवार (11 मई) को राज्यसभा में एक अहम मसला उठाया, जिस पर बहस की दरकार है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका धीरे-धीरे विधायिका के अधिकार क्षेत्र को कम करती जा रही है। यही नहीं, वे मानते हैं कि कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में भी न्यायपालिका अतिक्रमण कर रही है। अगर ऐसी स्थिति है, तो इसे कोई स्वस्थ रुझान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था या हमारा लोकतंत्र ‘शक्तियों के पृथक्करण’ के सिद्धांत पर आधारित है। कार्यपालिका या विधायिका अगर न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल दे, तो इसे कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता, बल्कि इसे तानाशाही का ही लक्षण माना जाएगा। इसी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में अदालती दखलंदाजी भी सही नहीं कही जा सकती।

जेटली का बयान जिस संदर्भ में आया वह स्वयं में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत की अनदेखी का एक उदाहरण हो सकता है। वे राज्यसभा में कांग्रेस सदस्यों की इस मांग का जवाब दे रहे थे कि जीएसटी से संबंधित कोई विवाद उठने की सूरत में उसके निपटारे के लिए एक स्वतंत्र व्यवस्था बननी चाहिए, जिसका मुखिया कोई जज हो। जेटली ने कहा कि अगर यह मांग मान ली जाए तो इसका मतलब होगा कि कर-निर्धारण की प्रक्रिया को कार्यपालिका के हाथ से निकल जाने देना, जो कि हमेशा उसका अधिकार क्षेत्र रहा है। जीएसटी संबंधी विवाद के निपटारे के लिए कोई तंत्र बनाना जरूरी हो सकता है, पर उसके मुखिया का न्यायिक पृष्ठभूमि से होना जरूरी क्यों हो? जेटली के ताजा बयान से बहुत पहले से न्यायिक सक्रियता पर बहस चली आ रही है। भिन्न-भिन्न लोगों की इस पर भिन्न-भिन्न राय रही है। कुछ न्यायिक सक्रियता को देश और समाज के लिए अच्छा मानते हैं तो कुछ इसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक खतरे के रूप में देखते हैं।

दरअसल, कुछ ऐसे मामले हैं जो कार्यपालिका या विधायिका से भी वास्ता रखते हैं और न्यायपालिका से भी। अगर किसी के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा हो या किसी कानून की व्याख्या की जरूरत हो, तो उस मामले का अदालत में जाना और उस पर सुनवाई होना स्वाभाविक तथा उचित है। पर अगर नीति निर्माण व प्रशासनिक क्षेत्र में अदालत का दखल होता है तो वह एक गलत मिसाल बनता है। पार्किंग शुल्क तय करने, कचरे के निपटारे, यातायात नियंत्रण, रैगिंग रोकने जैसे मामलों में किसी अदालत को पड़ने की क्या जरूरत है? नदी जोड़ योजना एक नीति निर्धारण संबंधी विषय है, पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में इस योजना के क्रियान्वयन की बाबत भी सरकार को तलब कर डाला था।

न्यायिक सक्रियता का सबसे विवादास्पद उदाहरण तो शायद खुद कोलेजियम प्रणाली है, जिसकी परिकल्पना हमारे संविधान में नहीं थी, पर जिसकी ईजाद सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले के जरिए कर ली। संविधान में तो, प्रधान न्यायाधीश की सलाह से, जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया था, और यही व्यवस्था कई दशक तक चलती रही। पर कोलेजियम प्रणाली के तहत जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसके औचित्य पर शुरू से सवाल उठते रहे हैं। कोलेजियम की जगह न्यायिक नियुक्ति एवं जवाबदेही आयोग बनाने के मकसद से संसद ने एक कानून आम सहमति से पारित किया था। पर सर्वोच्च न्यायालय को यह गवारा नहीं हुआ। संसद में सर्वसम्मति से पारित इस कानून को उसने असंवैधानिक ठहरा दिया। कानून बनाने के संसद के अधिकार का क्या हुआ?