शिक्षा की गुणवत्ता में बेहतरी के लिए शिक्षकों को समय-समय पर नए प्रयोगों से परिचित कराना या प्रशिक्षण देना शिक्षा-पद्धति का एक जरूरी हिस्सा है। मगर दिल्ली में एक प्रशिक्षण कार्यक्रम को लेकर शिक्षकों ने इसलिए नाराजगी जताई कि इससे उन्हें कई तरह की असुविधाओं का सामना कर पड़ेगा। कायदे से शिक्षकों को खुद प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए उत्साहित होना चाहिए और नए तौर-तरीके सीख कर बच्चों में सीखने की क्षमता में गुणात्मक बढ़ोतरी करने की कोशिश करनी चाहिए। पर उनका मानना है कि राज्य शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की ओर से चलाया जा रहा ‘वैल्यू एजुकेशन ट्रेनिंग प्रोग्राम’ उनके लिए असुविधा की वजह बन गया है। शिक्षकों की शिकायत है कि इस कार्यक्रम की सूचना उन्हें महज तीन-चार दिन पहले मिली और इतने कम समय में सूचित करना उन्हें परेशान करने जैसा है, क्योंकि स्कूलों में गरमी की छुट्टी के दौरान बहुत सारे शिक्षक कहीं आने-जाने या किसी दूसरे काम की योजना बनाते हैं।

एक तरह से इस शिकायत का आधार वाजिब लगता है कि अगर स्कूल की छुट्टियों के दौरान लगभग एक महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम तय किया गया तो उसमें भाग लेने वाले शिक्षकों को इसकी अग्रिम सूचना दी जानी चाहिए थी। अचानक प्रशिक्षण में शामिल होने की खबर दिए जाने के चलते शहर से बाहर होने के बावजूद कई शिक्षकों को अपनी छुट्टियां और काम रद्द कर वापस लौटना पड़ा। पहले जब प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित होते थे, तो गरमी की छुट्टियां शुरू होने के मद्देनजर मार्च में ही स्कूलों को इसके लिए समय-सारिणी जारी कर दी जाती थी। इससे प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले शिक्षकों को कोई खास असुविधा नहीं होती थी।

मगर इसका दूसरा पहलू यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जितनी शिद्दत से शिक्षक अपनी असुविधा की शिकायत दर्ज करते दिखते हैं, क्या स्कूलों में शिक्षण को लेकर भी वे उतने ही गंभीर होते हैं? सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई और सीखने का स्तर अगर अपेक्षित मानक से काफी खराब है, तो इसके लिए शिक्षकों की कमी से लेकर बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव जिम्मेदार है। लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो अपनी भूमिका के निर्वाह में शिक्षक क्या पूरी तरह ईमानदारी बरतते हैं? स्कूली शिक्षा के मसले पर होने वाले तमाम अध्ययनों में पिछले कई साल से यह तथ्य सामने आ रहा है कि बच्चों के सीखने का स्तर बेहद दयनीय है और पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी दूसरी कक्षा की भी किताब नहीं पढ़ पाते। सवाल है कि क्या इस स्थिति के लिए बच्चे जिम्मेदार हैं?

शिक्षण की पद्धति से लेकर शिक्षकों के कर्तव्य निर्वहन तक की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अगर केवल शिक्षण की विधियों की बात की जाए तो इसमें बाल मनोविज्ञान के पहलुओं का ध्यान रखा जाए और उसी के अनुसार पाठ्यक्रम और पढ़ाने के तौर-तरीके विकसित किए जाएं तो बच्चों के भीतर सीखने की क्षमता और फिर उनके स्तर में विकास किया जा सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में समय-समय पर होने वाले प्रयोगों को शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल किया भी जाता है। लेकिन इन प्रयोगों और प्रशिक्षण कार्यक्रम की उपयोगिता इस बात पर निर्भर है कि शिक्षक इसके प्रति कितना उत्साह दिखा पाते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रमों के प्रति उदासीनता या फिर महज औपचारिक उपस्थिति दर्ज करके अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेने से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में किसी खास सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके लिए संजीदगी की जरूरत है।