गुरुग्राम की एक रिहाइशी इमारत की छत बैठ जाने से निजी भवन निर्माता कंपनियों की विश्वसनीयता पर एक बार फिर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। गौरतलब है कि गुरुग्राम में एक अठारह मंजिला रिहाइशी इमारत की छठवीं मंजिल की बैठक की छत गिर गई, जिसका वजन नीचे की कोई भी छत नहीं उठा पाई और एक एक कर सभी गिरती चली गईं। उस इमारत के सभी घरों में लोग रहते बताए जा रहे हैं, मगर गनीमत है कि ज्यादा लोग इस हादसे में हताहत नहीं हुए।
बताया जा रहा है कि छठवीं मंजिल पर छत को सजावटी रूप देने के लिए काम चल रहा था, जिसमें मजदूर छेद करने की मशीनें चला रहे थे। छत के धसकने की एक वजह यही बताई जा रही है। मगर इससे भवन निर्माता के लिए अपने बचाव का कोई आधार नहीं मिल जाता। हालांकि हरियाणा सरकार ने मामले की जांच कराने को कहा है और रिहाइशी इमारत बनाने वाली कंपनी भी जांच में सहयोग का आश्वासन दे रही है, मगर इससे मामला रफा-दफा बेशक हो जाए, यह सवाल अपनी जगह बना रहेगा कि आखिर भवन निर्माण में गुणवत्ता आदि की जांच की जिम्मेदारी निभाने वाले महकमे की जवाबदेही कैसे तय होगी।
यह पहला मौका नहीं है जब कोई तैयार भवन धसक गया या निर्माणाधीन भवन धराशायी हो गया हो। गैरकानूनी तरीके से बसी बस्तियों में तो यह माना जा सकता है कि लोग मनमाने तरीके से भवन निर्माण करते हैं, जिसमें न तो नक्शा ठीक से बनाया जाता है और न इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किस मंजिल पर कितना वजन रखना चाहिए। सामग्री की गुणवत्ता आदि की परवाह भी नहीं की जाती। मगर जब कोई बड़ी कंपनी इस तरह बहुमंजिला रिहाइशी इमारत बनाती है, तो उन्हें जमीन खरीदने से लेकर भवन का नक्शा पास कराने और भवन की ऊंचाई, उसमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री, निकास, सुरक्षा व्यवस्था आदि को लेकर मंजूरी लेनी पड़ती है।
जिस कंपनी की बनाई इमारत की छत गिरी, वह बड़ी कंपनी है। दिल्ली में रिहाइशी भवनों के लिए जगह की कमी के चलते गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा, गाजियाबाद, सोनीपत, रोहतक आदि की तरफ लोगों ने रुख किया है। तमाम बड़ी कंपनियों ने इन इलाकों में अपनी परियोजनाएं शुरू की हैं। ये लोगों को लुभाने और महंगे मकान बेचने के लिए अपने विज्ञापनों में गुणवत्ता तथा सुविधाओं आदि के बढ़-चढ़ कर दावे करती हैं। साज-सज्जा के लिहाज से ये इमारतें आकर्षक भी होती हैं, पर गुणवत्ता के मामले में अक्सर ग्राहकों की शिकायतें सुनने को मिलती रहती हैं।
सवाल है कि जब ये कंपनियां इमारतें बनाने से पहले हर काम के लिए सरकारी विभागों से मंजूरी हासिल करती हैं, तो फिर सरकारी महकमा उस समय कहां गायब हो जाता है, जब उन इमारतों में इस्तेमाल होने वाली सामग्री की गुणवत्ता जांचने की बारी आती है। इसका एक जाहिर जवाब तो यही है कि भवन निर्माता कंपनियां अधिकारियों की जेबें गरम करके बहुत सारे नियम-कायदों को ताक पर रख देती हैं।
फिर उनका इरादा कम लागत में अधिक कमाई करने का होता है, इसलिए गुणवत्ता की परवाह नहीं करतीं, जिसका नतीजा ताजा मामले में छत का धसक जाना है। अब उन ग्राहकों पर क्या बीत रही होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। पर बड़ा सवाल यह है कि आखिर सरकारें इस तरह कब तक लोगों की जान को जोखिम में डाल कर भवन निर्माता कंपनियों को मनमानी की छूट देती रहेंगी।