मुंबई विश्वविद्यालय में शनिवार को भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति और उसके मानवीय विकास में विज्ञान और तकनीक की अहम भूमिका होती है। इस बात से मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। पश्चिमी देशों की तरक्की इसी सच्चाई को प्रतिबिंबित करती है। यों भारत भी अपनी अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियां गिना सकता है। अंतरिक्ष विज्ञान में आज इसकी गिनती अग्रणी देशों में होती है। विज्ञान के कई दूसरे क्षेत्रों में भी बहुत-सी भारतीय प्रतिभाएं सक्रिय हैं। लेकिन देश में न तो विज्ञान की आम शिक्षा की हालत संतोषजनक है न समाज में वैज्ञानिक नजरिए की व्यापक जगह बन पाई है। इस पर ध्यान केंद्रित किए बिना मानवीय विकास के लिए विज्ञान और तकनीक के उस तकाजे को पूरा करने की दिशा में नहीं बढ़ा जा सकता, जिसे इस बार के विज्ञान कांग्रेस ने अपना केंद्रीय विषय बनाया है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी मानते थे कि विज्ञान की मदद लिए बिना देश को खुशहाल नहीं बनाया जा सकता; इसीलिए उनकी पहल से विज्ञान और तकनीक के अनेक महत्त्वूर्ण संस्थान स्थापित हुए, शोध और अनुसंधान के लिए अनुदान शुरू हुए। पर नेहरू ने जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया, क्या आज के शासकों में उसकी झलक दिखती है?
विडंबना यह है कि खुद विज्ञान कांग्रेस के इस बार के आयोजन में विचलन नजर आता है, उसके कई सत्रों के विषय इसी की गवाही देते हैं। प्राचीन भारत के गौरव-गान के लिए बहुत कुछ है, पर मिथकों और रूपकों को विज्ञान साबित करने की कवायद से न तो उनका अर्थ और संदेश बचा रह सकता है न विज्ञान की समझ फल-फूल सकती है। जब प्रधानमंत्री खुद स्टेम सेल और प्लास्टिक सर्जरी को पौराणिक किस्सों में बदल दें, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैज्ञानिक सोच के प्रसार की चुनौतियां कितनी विकट हैं। बहरहाल, विज्ञान की चर्चा अक्सर चोटी की वैज्ञानिक उपलब्धियों के इर्दगिर्द सिमट कर रह जाती है। मगर आज जिस बात पर सबसे ज्यादा विचार करने की जरूरत है वह यह कि देश में विज्ञान की शिक्षा की स्थिति कैसे सुधरे, और दूसरे, जन-समस्याओं के निराकरण में विज्ञान का उपयोग कैसे बढ़ाया जाए। विज्ञान की स्कूली शिक्षा की हालत यह है कि प्रयोगशालाओं की भारी कमी है। समझने और प्रयोग करके सीखने के बजाय विद्यार्थी तथ्य रटते हैं, जैसे कि तमाम अन्य विषयों में करते हैं। विज्ञान की पढ़ाई में नवाचार का सबसे उल्लेखनीय प्रयोग होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के रूप में 1972 में हुआ था। पर इसे राजनीतिक दबावों के चलते 2002 में बंद कर दिया गया। इस पर तमाम शिक्षाविदों ने विरोध जताया था, पर उनकी नहीं सुनी गई।
यह प्रयोग भले जारी नहीं रह सका, पर विज्ञान शिक्षण में इसके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। विज्ञान के नियमों और सैद्धांतिकी को रटाने के बजाय इसका जोर विज्ञान को समझने और पर्यवेक्षण और करके देखने जैसी प्रक्रियाओं पर था। इस संस्था की ओर से तैयार किए गए समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी यह खूबी मौजूद थी। समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार को भी पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता रहा है। इस सिलसिले की सबसे त्रासद घटना नरेंद्र दाभोलकर की हत्या थी। इस बार के विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान और मेक इन इंडिया नाम से विनिर्माण को गति देने के लिए शुरू किए कार्यक्रम को विचार-विमर्श का खास विषय बनाया गया है। आज वैज्ञानिक चुनौती के लिहाज से जन स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन और जलवायु संकट जैसे मसले कहीं ज्यादा अहम हैं। ऐसे मामलों में विज्ञान और तकनीक की भूमिका उम्मीद के अनुरूप तभी हो सकती है जब सरकारी नीतियां और प्राथमिकताएं भी वैसी हों।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta