महीने भर पहले केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड ने अंगरेजी और हिंदी के कुछ आपत्तिजनक शब्दों की सूची अपने क्षेत्रीय कार्यालयों को जारी की थी, इस मकसद से इनका इस्तेमाल फिल्मों में न होने पाए। सूची का खुलासा होते ही विवाद खड़ा हो गया। तमाम फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने कहा कि यह उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है। उनकी चिंता वाजिब थी। चौतरफा आलोचना और बोर्ड के भीतर मतभेद को देखते हुए बोर्ड ने कहा कि उसका प्रस्ताव फिलहाल क्रियान्वित नहीं किया जा रहा है। मगर एक महीने बाद नए सिरे से विवाद खड़ा हो गया, जिसके लिए बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी जिम्मेवार हैं। नवदीप सिंह निर्देशित फिल्म ‘एनएच 10’ में कुछ कट किए जाने पर खुद बोर्ड के सदस्य चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने नाराजगी जताई है। उनकी नाखुशी बोर्ड की बेहद अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को लेकर है। पर दूसरा सवाल भी उतना ही अहम है, वह यह कि इस सूची का औचित्य क्या है? द्विवेदी ने बोर्ड के अध्यक्ष को पत्र लिख कर पूछा है कि जब पिछली बैठक में यह तय हो गया था कि सूची फिलहाल क्रियान्वित नहीं की जाएगी, तो ‘एनएच 10’ में कट क्यों किए गए? क्या यह सदस्यों के विश्वास का उल्लंघन नहीं है?

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि जब सूची को लेकर सदस्यों में आम राय नहीं है, तो अध्यक्ष किसके बूते मनमानी कर रहे हैं? क्या इसके पीछे सरकार की शह नहीं है? लीला सैमसन को जिस तरह सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा और उसके बाद जिस तरह बोर्ड का पुनर्गठन हुआ, उसमें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की दखलंदाजी किसी से छिपी नहीं रही है। कथित आपत्तिजनक शब्दों की सूची को लेकर जब पहली बार विवाद खड़ा हुआ, तब पहलाज निहलानी का कहना था कि जिन्हें समस्या है वे मंत्रालय के पास जाएं। क्या सूची सीधे मंत्रालय से निर्देशित है? फिर सवाल यह है कि क्या इस तरह फिल्में बनाना संभव रह जाएगा? बोर्ड की सूची में अवांछित करार दिए गए बहुत-से ऐसे शब्द शामिल हैं, जो आम जीवन का हिस्सा हैं। मजे की बात है कि बंबई शब्द को भी अवांछित मान लिया गया! सूची के पीछे दलील यह थी कि भले ये शब्द आम बोलचाल में चलन में हों, पर फिल्म में इनका इस्तेमाल दिखाए जाने से लोगों पर, खासकर बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। क्या वे यह मान कर चलते हैं कि हर शब्द या हर दृश्य को दर्शक संदेश के रूप में ग्रहण करते हैं? फिर तो बहुत सारा यथार्थ फिल्मों में नहीं दिखाया जा सकेगा। शब्दों पर इस तरह की बंदिश निहायत बेतुकी है। फिल्म के संवाद पात्र की पृष्ठभूमि और परिवेश से अलग नहीं किए जा सकते।

फिर, बोर्ड ने अंगरेजी और हिंदी, दोनों में जो अट्ठाईस शब्द चुने हैं, क्या उनके अलावा ‘आपत्तिजनक’ शब्द नहीं हो सकते? इस तरह तो सूची का कोई अंत नहीं होगा? बोर्ड पुरानी फिल्मों के बारे में क्या करेगा? क्या उनके लिए दोबारा बोर्ड की इजाजत लेनी होगी? जिन फिल्मों को बोर्ड की मंजूरी मिल चुकी है, मगर किसी कारण से वे जारी नहीं हो पाई हैं, क्या उन्हें फिर से प्रमाणपत्र लेना होगा, क्या उनमें कट किए जाएंगे? ये सवाल तमाम फिल्म निर्माताओं की तरफ से तो उठे ही, बोर्ड के सदस्यों को भी चुभे होंगे। और यही वजह थी कि सूची को स्थगित रखने का फैसला हुआ था। फिर एक फिल्म पर गाज क्यों गिरी?

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