कर्नाटक विधानसभा में बीएस येदियुरप्पा के विश्वासमत जीतने के साथ ही वहां चल रही सियासी उथल-पुथल का एक दौर फिलहाल पूरा हो गया है। लेकिन विधानसभा में फिलहाल पार्टियों का गणित और भावी उपचुनावों के मद्देनजर यह कहना मुश्किल है कि आगे सब कुछ स्थिर रहेगा। दरअसल, जिस दौरान सदन में इस विश्वासमत की तैयारी चल रही थी, उसी बीच निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष केआर रमेश कुमार ने कांग्रेस और जनता दल (सेकु) से बगावत करने वाले चौदह विधायकों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य करार दिया। इस फैसले के बाद अयोग्य घोषित किए गए विधायक अब मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल यानी 2023 तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिस दिन से कांग्रेस और जनता दल (सेकु) के इन विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टी से असंतुष्ट होने की घोषणा की थी, तभी से सबकी निगाहें विधानसभा अध्यक्ष के रुख पर टिकी थीं। हालांकि मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, लेकिन निर्णय विधानसभा अध्यक्ष पर ही निर्भर था। इसी संदर्भ में नई सरकार के गठन के ठीक पहले दोनों पार्टियों के कुल सत्रह विधायकों के बारे में उन्होंने जो फैसला दिया, वह दल-बदल कानून के तहत सामने आए एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में याद रखा जाएगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी जनप्रतिनिधि को अपनी पार्टी की राय से असहमति जाहिर करने का अधिकार है और पार्टियों के भीतर लोकतंत्र की एक जरूरी शर्त है। लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान इस लोकतांत्रिक अधिकार का जिस तरह दुरुपयोग हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं रहा है। सच यह है कि इस बहाने सरकार बनाने और गिराने के जिस तरह के खेल सामने आए, वे राजनीतिक अवसरवाद के ही उदाहरण रहे। किसी पार्टी की ओर से मिलने वाले प्रच्छन्न प्रस्तावों के सामने अपनी पार्टी के सिद्धांत या उसकी विचारधारा के प्रति निष्ठा का कोई मतलब नहीं रहा और सुविधा के मुताबिक अलग-अलग पार्टियों के कुछ नेता अपना दल बदलते रहे। जबकि इसी प्रवृत्ति पर लगाम के लिए 1985 में ही दल-बदल कानून को दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। इस कानून के तहत प्रावधान किया गया कि अगर किसी पार्टी के टिकट पर चुना गया कोई विधायक उस पार्टी को अपनी मर्जी से छोड़ता है या अपनी पार्टी के निर्देश के उलट जाकर किसी अन्य के पक्ष में वोट देता है तो उसे अयोग्य करार दिया जाएगा।
दरअसल, कर्नाटक के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम में यह शुरू से साफ था कि अपनी पार्टियों यानी कांग्रेस और जेडीएस में असंतोष जताने वाले विधायक किसी सैद्धांतिक बुनियाद पर नहीं खड़े थे। असंतोष अगर कुछ था तो यह कि उन्हें मनमाफिक पद और हैसियत हासिल नहीं हो सकी थी। यही वजह है कि उनकी बगावत की घोषणा के बाद ऐसे आरोप सामने आए कि भाजपा की ओर से उन्हें मंत्री पद और दूसरी सुविधाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। अगर इन आरोपों का कोई आधार था, तो इतना तय है कि बागी विधायकों के लिए सिद्धांत या जनप्रतिनिधि होने की गरिमा जैसी बातों का कोई महत्त्व नहीं था। लेकिन किसी पद या सुविधा की उम्मीद में होने के बावजूद क्या उन्हें दल-बदल कानून के तहत भावी कार्रवाई यानी अपने को अयोग्य घोषित किए जाने का अंदाजा भी नहीं था? अब भविष्य में अगर किन्हीं वजहों से सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी उनके अनुकूल नहीं रहे तो मंत्री बनने की उनकी इच्छा की क्या कीमत रहेगी! सरकार किसी की रहे, लेकिन निश्चित तौर पर सिद्धांत और विचारधारा के बरक्स किसी प्रलोभन के तहत या फिर खोखले असंतोष की बुनियाद पर खड़ा होकर अपनी पार्टी से बगावत भारतीय राजनीति की एक बड़ी समस्या रही है, जिसमें एक तरह से मतदान करने वाली जनता से भी घात होता है।

