दस साल पहले सूचना के अधिकार का कानून बना, तो प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की यह एक ऐतिहासिक पहल थी। नागरिकों के सशक्तीकरण का औजार होने के कारण यह कानून लोकतंत्र संवर्धन की दिशा में भी एक बड़ा कदम था। लेकिन सूचनाधिकार कानून बनने के एक दशक बाद हम कहां खड़े हैं? क्या तमाम सरकारी विभाग अपना काम पारदर्शी तरीके से कर रहे हैं? भ्रष्टाचार से कितनी निजात मिली है? इसमें दो राय नहीं कि सूचनाधिकार के जरिए अनियमितता के अनेक मामलों का खुलासा हुआ है। पर यह भी सही है कि आरटीआइ आवेदकों की मुश्किलें बराबर बढ़ती गई हैं।
लोक अधिकारी अक्सर सूचना देने से आनाकानी करते हैं। कई राज्य सरकारों ने अघोषित रूप से सूचनाधिकार को हतोत्साहित करने का रवैया अपना रखा है। ऐसी सूचना मांगे जाने पर, जिसका संबंध रसूख वाले लोगों पर लगे आरोपों से हो, आरटीआइ कार्यकर्ताओं को तरह-तरह की धमकियां मिलती हैं। कुछ पर जानलेवा हमले हुए हैं। कइयों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा है। साल भर पहले संसद से विसलब्लोअर कानून पारित हुआ था, पर उसके नियम निर्धारित न किए जाने के कारण उसे अब भी अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है।
सूचनाधिकार से जगी उम्मीदें कानून बनने के एक दशक बाद धुंधली पड़ने लगी हैं। इसकी मुश्किलें हर स्तर पर बढ़ी हैं। एक तरफ अधिकतर सरकारी विभाग अपेक्षित जानकारी अपनी वेबसाइट पर मुहैया नहीं कराते, और दूसरी तरफ, सूचना आयोगों पर अपीलों का बोझ बढ़ता जा रहा है। पिछले हफ्ते सीआइसी यानी केंद्रीय सूचना आयोग ने अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि केवल पच्चीस फीसद सरकारी विभागों ने स्वत: जानकारी देने के नियम का पालन किया। गौरतलब है कि सूचनाधिकार अधिनियम की धारा चार के तहत लोक अधिकारी को अपने विभाग के कामकाज और वहां रखे जाने वाले अभिलेखों के बारे में सत्रह श्रेणियों की सूचनाएं वेबसाइट पर डालनी होती हैं ताकि उनसे जुड़ी जानकारी पाने के लिए किसी को आरटीआइ आवेदन न दायर करना पड़े। मगर रिपोर्ट के मुताबिक 2,276 विभागों में से महज 667 ने इस प्रावधान का पालन किया है। लिहाजा, हैरत की बात नहीं कि सूचना आयोगों में अपीलों की तादाद बढ़ती जा रही है। अपील का निपटारा होने में दो साल, तीन लग जाना आम बात है।
जहां अधिकतर सरकारी विभागों की वेबसाइट पर जानकारी न डाले जाने से सूचनाधिकार बाधित हो रहा है, वहीं सूचना आयोगों के पास अपीलों का निपटारा करने के लिए पर्याप्त क्षमता और संसाधन नहीं हैं। सरकारें सूचना आयुक्तों के रिक्त पद समय से नहीं भरतीं। राज्यों में हालत और भी खराब है। आयुक्तों के रिक्त पदों के अलावा आयोगों की दूसरी समस्या यह है कि उनके पास आवश्यक संख्या में ऐसे कर्मचारी नहीं हैं जो अपने काम में कुशल और कानून के जानकार हों। सूचना आयोगों का गठन इसलिए किया गया था कि अगर प्रशासनिक अधिकारी निर्धारित समय में मांगी गई सूचना देने से इनकार करें, तो इसके खिलाफ अपील की जा सके। लेकिन अगर अपील पर सुनवाई के लिए बरसों इंतजार करना पड़े, तो सूचनाधिकार बेमतलब होकर रह जाता है।
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