खबर है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पहले सरकार से पूछा था कि इसे लाने की इतनी जल्दी क्या थी। इस पर सरकार के तीन वरिष्ठ मंत्रियों को उनसे मिल कर सफाई देनी पड़ी। राष्ट्रपति का सवाल अमूमन सांकेतिक होता है, पर उसके निहितार्थ व्यापक होते हैं। स्पष्टीकरण मांगना उनकी अप्रसन्नता को दर्शाता है। दरअसल, मोदी सरकार ने जिस तरह अध्यादेशों की झड़ी लगा दी है, वह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। संविधान में अध्यादेश का प्रावधान आपात-उपाय के तौर पर किया गया है। इसलिए इसका सहारा अपवाद के रूप में ही किया जाना चाहिए। मगर सरकार ने सात महीनों में एक के बाद एक अध्यादेशों की कतार लगा दी है। विडंबना यह है कि भाजपा विपक्ष में रहते हुए अध्यादेश का पुरजोर विरोध करती थी। साल भर पहले खाद्य सुरक्षा अध्यादेश पर अरुण जेटली ने कहा था कि अध्यादेश विधायी शक्तियों का अपमान है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि विधायी शक्तियों का अपमान अब कौन कर रहा है? सरकार ने दोष विपक्ष के गले मढ़ा है, यह कहते हुए कि संसद की कार्यवाही बाधित होने के कारण उसे ये कदम उठाने पड़े। लेकिन क्या विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने यह नहीं किया था?

यूपीए सरकार के दौरान काले धन पर भाजपा के शोर-शराबे के कारण संसद का कितना वक्त जाया हुआ। पर आज इस मामले में मोदी सरकार वही सब कह रही है, जो पिछली सरकार कहती थी। विपक्ष यही तो चाहता था कि प्रधानमंत्री धर्मांतरण के मसले पर अपना रुख साफ करें। प्रधानमंत्री इससे क्यों बचते रहे? अपना पक्ष रख कर वे संसदीय गतिरोध दूर कर सकते थे, पर वैसा उन्होंने नहीं किया। और अब सत्तारूढ़ पार्टी अध्यादेशों का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ रही है! लेकिन यह दिलचस्प है कि अध्यादेश केवल लंबित विधेयकों की जगह नहीं लाए गए। दिल्ली की आठ सौ पंचानबे अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने की घोषणा भी अचानक अध्यादेश के जरिए कर दी गई। क्या चुनावी गरज से अध्यादेश लाया जाना चाहिए? दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों का मसला लंबे समय से उठता रहा है। यह कोई आपात विषय नहीं था, जिसके लिए संसद के अगले सत्र का इंतजार न किया जा सके। भूमि अधिग्रहण कानून संसद में व्यापक विचार-विमर्श से बना था। यही नहीं, देश के अनेक जनसंगठनों, किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों की आकांक्षाओं और सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का दबाव भी इसके पीछे था। उस सब की तार्किक परिणति को महज अध्यादेश के जरिए पलट दिया गया। इस अध्यादेश के तीन खास आयाम हैं। एक यह कि इसने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में जमीन के मालिकों की सहमति की शर्त काफी हद तक घटा दी है। दूसरे, ऐसी परियोजनाओं का दायरा काफी बढ़ा दिया है जिनके लिए जमीन अधिग्रहीत करने में सहमति की जरूरत नहीं होगी। तीसरे, अब बहुफसली जमीन का भी अधिग्रहण किया जा सकेगा। इस तरह अध्यादेश ने अत्यधिक अधिग्रहण और जबरन अधिग्रहण का रास्ता साफ किया है।

इस अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को फिर उसी दिशा में ले जाया जा रहा है जो अंगरेजी हुकूमत के दौरान बने कानून में थी, और जिसे बदलने के लिए ही नया कानून बनाना पड़ा था। तब भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने इससे भी सख्त प्रावधान करने के सुझाव दिए थे। मगर अब भाजपा अपने ही सुझावों को याद नहीं करना चाहती। हड़बड़ी में अध्यादेश लाकर सरकार ने यह संदेश देना चाहा है कि वह बाजार-केंद्रित आर्थिक सुधारों के लिए कितनी बेचैन है। पर अध्यादेशों से संसदीय प्रणाली पर तो कुठाराघात हुआ ही है, आर्थिक सुधारों को लेकर आम सहमति होने की धारणा कमजोर पड़ सकती है।

 

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