पांच दलों के ‘जनता परिवार’ ने दिल्ली के जंतर मंतर पर हुए धरने के जरिए एक बार फिर अपनी एकजुटता जताई है। यों डेढ़ महीने पहले ही समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एकी), जनता दल (एस) और इंडियन नेशनल लोकदल ने संसद में विभिन्न मुद्दों पर साझा रुख अपनाने के संकेत दे दिए थे। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जल्दी ही इन दलों का कोई मोर्चा बन सकता है। लेकिन बीस दिन पहले इनके नेताओं ने मोर्चा नहीं, विलय कर नया दल बनाने का निर्णय किया। सोमवार को हुए धरने का मकसद मोदी सरकार को घेरने के अलावा नए दल के संकल्प का इजहार करना भी था। इन पार्टियों की वैचारिक पृष्ठभूमि समान रही है, कभी ये जनता दल के नाम से एक ही थीं। इसलिए गठबंधन के बजाय नए दल के गठन की ओर बढ़ना हर हाल में बेहतर कदम है।
अब सवाल यह है कि संभावित दल के वजूद में आने से देश की राजनीति पर क्या असर या फर्क पड़ेगा? निश्चय ही इस पहल की कई सीमाएं हैं। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा, शरद यादव कोई नया आकर्षण पैदा कर पाएंगे, इसमें संदेह है। विलय के बाद भी वे देश भर में अपनी मौजूदगी का दावा नहीं कर सकते। लोकसभा में उनकी कुल सदस्य-संख्या पंद्रह से ज्यादा नहीं होगी। लेकिन दूसरी तरफ कई बातें ऐसी हैं जो इस कवायद की अहमियत रेखांकित करती हैं। नई पार्टी राज्यसभा में तीसरी सबसे बड़ी ताकत होगी, जहां भाजपा को फिलहाल बहुमत हासिल नहीं है। फिर, नए दल का राष्ट्रीय आकार भले नहीं होगा, पर इसकी हैसियत एक राज्य तक सिमटे तमाम क्षेत्रीय दलों से अधिक होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, हरियाणा तो इसके प्रभाव क्षेत्र तो होंगे ही, यह दूसरे राज्यों में भी थोड़ा-बहुत पैर पसार सकता है। लिहाजा, ऐसे समय जब विपक्ष कमजोर दिख रहा हो, इन पांच दलों के विलय की संभावना मायने रखती है। हो सकता है भाजपा या मोदी की बढ़ी हुई ताकत ने इन्हें एकजुट होने को विवश किया हो। लेकिन अगर वे मोदी की चुनौती से पार पाने के लिए एक हो रहे हैं, तो इसमें हर्ज क्या है?
कमजोर विपक्ष लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। इसलिए तमाम कमियों के बावजूद नए दल की एक प्रासंगिकता हो सकती है। स्वाभाविक ही यह भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता की बात होगी। पर शायद कांग्रेस को भी यह रास न आए, क्योंकि फिर विपक्ष की जगह घेरने के लिए उसे कड़ा मुकाबला करना होगा। पर विपक्ष की यह प्रतिस्पर्धा भी अंतत: हमारे लोकतंत्र के हित में है। जंतर मंतर पर हुए धरने में इन पार्टियों के नेताओं ने देश के लोगों से किए मोदी के वायदों की जमकर खबर ली। उन्होंने पूछा कि काला धन वापस लाने और हर गरीब आदमी के खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा करने के वायदे का क्या हुआ? बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराने के लिए मोदी सरकार क्या कर रही है? इन सवालों पर मोदी ने चुप्पी साध रखी है। दूसरी तरफ संघ परिवार धर्मांतरण का विवाद खड़ा कर देश का सामाजिक माहौल बिगाड़ने में लगा हुआ है। ऐसे समय यह बहुत जरूरी है कि जन-सरोकार से जुड़े मुद्दे जोर-शोर से उठाए जाएं। यही सांप्रदायिक राजनीति की सबसे बड़ी काट भी होगी।
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