अधिक समय नहीं हुआ जब पेट्रोल और डीजल को पूरी तरह नियंत्रण-मुक्त करने की घोषणा की गई थी, यानी अब पेट्रोल और डीजल की खुदरा दरें अंतरराष्ट्रीय बाजार के मुताबिक तय होंगी। इसी फैसले के साथ पेट्रोलियम की खुदरा कीमतों में सबसिडी का लाभ मिलने का अध्याय समाप्त हो गया। उपभोक्ताओं को तब सरकार ने दिलासा देते हुए कहा था कि पेट्रोलियम पदार्थों को नियंत्रण-मुक्त करने के फैसले से उन्हें लाभ भी हो सकता है; अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम घटेंगे, तो पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी घटेंगी। लेकिन क्या वाकई पेट्रोलियम को नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है? पेट्रोल-डीजल की कीमतें तेल कंपनियां तय कर रही हैं, या सरकार? सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। यह बढ़ोतरी दो-दो रुपए प्रति लीटर की गई है। पिछले दो महीने में यह तीसरी शुल्क-वृद्धि है। अलबत्ता ताजा बढ़ोतरी का असर पेट्रोल-डीजल के खुदरा दामों पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में एक बार फिर कमी आई है। इस गिरावट के फलस्वरूप, शुल्क-वृद्धि के बावजूद, पेट्रोल-डीजल के दाम यथावत रहेंगे।

लेकिन जब कच्चे तेल की कीमतों का हवाला देकर उपभोक्ताओं से ज्यादा दाम चुकाने को कहा जाता था, तो अब उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरावट का लाभ क्यों नहीं लेने दिया जा रहा है? उत्पाद शुल्क में एक बार फिर बढ़ोतरी के पीछे सरकार के दो तर्क हैं। एक यह कि राजकोषीय घाटा काफी चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है; इससे कम करने के लिए कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में आई गिरावट एक सुनहरा मौका है। उत्पाद शुल्क बढ़ा कर सरकारी खजाने की सेहत सुधारने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल क्यों न किया जाए, जबकि पेट्रोल-डीजल के ग्राहकों को पहले से अधिक भुगतान नहीं करना होगा। लेकिन सवाल है कि फिर विमान र्इंधन के मामले में यही रुख क्यों नहीं अपनाया गया? एटीएफ यानी विमान र्इंधन के दामों में साढ़े बारह फीसद की कमी की गई है। राजकोषीय घाटे की भरपाई का तर्क वहां क्यों नहीं लागू किया गया?

सरकार की दूसरी दलील है कि उत्पाद शुल्क में वृद्धि से जो प्राप्ति होगी उसे ढांचागत कोष में डाला जाएगा, जिसका इस्तेमाल नई सड़कों के निर्माण में होगा। पर ये सड़कें किनके लिए होंगी? ढांचागत विकास के नाम पर हाइवे, एक्सप्रेस वे और फ्लाइओवरों पर ज्यादा से ज्यादा संसाधन झोंके जा रहे हैं, जबकि आम सड़कों का बुरा हाल है। भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में महंगाई रोकने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष बनाने का वादा किया था। कच्चे तेल के बाजार में आई मंदी का इस्तेमाल इस कोष के लिए करने की बात क्यों नहीं सोची गई। पेट्रोल-डीजल पर कई तरह के कर राज्य सरकारें भी लगाती हैं। लेकिन पेट्रोलियम से होने वाली कमाई का राज्यों में कितना उपयोग ढांचागत विकास के लिए हुआ है? अनेक राज्यों के सड़क परिवहन निगम अरसे से घाटे में हैं। इसी वजह से छह साल पहले मध्यप्रदेश में परिवहन निगम बंद हो गया। अब राजस्थान का परिवहन निगम भी उसी कगार पर पहुंचता दिख रहा है। डीजल की काफी खपत सार्वजनिक परिवहन और माल ढुलाई में होती है, कृषि-कार्यों में भी। सरकार चाहती तो कम से कम डीजल को उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी से अलग रख सकती थी। पर उसने इसमें भी राहत देना गवारा नहीं किया।

 

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