लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों की ओर से प्रचार पर किए जाने वाले खर्चों को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने चुनाव खर्च की सीमा भी तय कर दी है। वह लगातार इस पर निगरानी रखता है। मगर दिल्ली विधानसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने जिस तरह प्रचार अभियान चला रखा है, उसमें खुले तौर पर पैसे का प्रदर्शन दिखता है। खासकर भारतीय जनता पार्टी बेलगाम खर्च के बल पर आक्रामक प्रचार कर रही है, वह उसके सादगी के दावों के बरक्स विरोधाभासों से भरा हुआ है। हर इलाके में दीवारों से लेकर बस स्टॉपों और मेट्रो ट्रेनों के भीतर सारी जगहें प्रचार संबंधी बैनर-पोस्टरों और बड़े-बड़े होर्डिंगों से भरी हुई हैं। लगता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की धूमधाम से शुरुआत की थी, उसकी फिक्र खुद भाजपा नेताओं को है। इस क्रम में उन्हें खर्च से लेकर नैतिक मानदंडों का ध्यान रखना जरूरी नहीं लग रहा। मसलन, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अण्णा आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाली किरण बेदी आज दिल्ली में भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं, मगर अब उन्हें चुनाव पर खर्च होने वाले पैसे में भ्रष्टाचार की गंध नहीं आ रही! इस पर उनके जवाब बेपरवाही भरे ही हैं।
विचित्र है कि पिछले कई सालों से चुनावों में बेलगाम खर्च के मसले पर लगातार सवाल उठने के बावजूद ज्यादातर राजनीतिक दल न अपने ऊपर लगाम कसने को तैयार हैं, न ईमानदारी से इसका ब्योरा सार्वजनिक करने की जरूरत समझते हैं। दिल्ली में अकेले आम आदमी पार्टी ने अपने खर्चों का ब्योरा इंटरनेट पर जारी किया है। वह अनावश्यक प्रदर्शन को तरजीह नहीं दे रही। इसके अलावा, मीडिया में अनेक रूपों में आने वाले प्रचार की हकीकत भी अब छिपी नहीं है। राजनीतिक दल दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों की ओर से मिले चंदों से उठाते हैं। अगर इन सबका हिसाब लगाया जाए तो क्या इतने खर्च की व्यवस्था केवल समर्थकों या सदस्यों से जमा किए गए धन से की जा सकती है? ऐसी खबरें आम हैं कि अनेक पार्टियों को बहुत सारा पैसा औद्योगिक घरानों से मिलता है। देश की राजनीति में काले धन की बड़ी भूमिका होने की बातें भी कही जाती रही हैं। लेकिन विडंबना है कि जहां दुनिया के कई देशों में राजनीतिक दलों के लिए अपने सभी तरह के चंदों का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है, वहीं भारत में लगभग सभी पार्टियां इस मसले पर पारदर्शिता बरतना जरूरी नहीं समझतीं। बहरहाल, चुनाव सुधार के लिए समय-समय पर बनी समितियों ने बहुत सारे सुझाव दिए हैं, मगर उनकी सिफारिशों पर अमल करना किसी भी सरकार के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है। फिर राजनीतिक दल चुनाव खर्च की सीमा में उस सूराख का सहारा लेकर खर्च से परहेज नहीं करते कि उसमें प्रत्याशियों के खर्च की सीमा तो तय है, पार्टियों का खर्च तय नहीं है। भाजपा भी उसी की आड़ में प्रचार पर पैसे बहा रही है। सवाल है कि क्या एक लोकतंत्र पैसे के खुले प्रदर्शन पर टिके चुनाव प्रचार के बूते जिंदा रहेगा? अगर ऐसा होता है तो फिर उन राजनीतिक दलों के लिए इसमें क्या जगह बचेगी, जो धन के बल पर चलने वाली इस ‘प्रतियोगिता’ में नहीं टिक सकते!
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