आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान के बाद समान रैंक समान पेंशन की मांग को लेकर चल रहा पूर्व सैनिकों का आमरण अनशन समाप्त हो गया। शनिवार को रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने समान रैंक समान पेंशन की मांग को स्वीकार करते हुए उसे पिछली जुलाई से लागू करने का एलान कर दिया था। मगर पूर्व सैनिकों ने उसे मानने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसमें कहा गया था कि जिन सैनिकों ने स्वैच्छिक अवकाश लिया है, उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा। फिर यह भी कि इस पेंशन योजना की समीक्षा हर पांच साल पर की जाएगी। पूर्व सैनिकों की मांग थी कि इस पेंशन योजना का लाभ सभी को मिले, चाहे किसी को युद्ध में घायल होने की वजह से सेवानिवृत्ति लेनी पड़ी हो या फिर पदोन्नति संबंधी विभागीय जटिलताओं के चलते उन्होंने स्वैच्छिक अवकाश लिया हो।
इसके अलावा इस पेंशन की समीक्षा हर दो साल पर की जाए। पूर्व सैनिकों ने पेंशन से जुड़े पहलुओं की समीक्षा के लिए सरकार की तरफ से गठित की जाने वाली एक सदस्यीय समिति को भी नामंजूर कर दिया था। उनका कहना था कि चार सदस्य सेना से होने चाहिए और एक रक्षा मंत्रालय अपनी ओर से नियुक्त करे। इस तरह छह में से सिर्फ एक मांग मानी जाने पर पूर्व सैनिकों का असंतोष बना हुआ था। पर रविवार को मेट्रो रेल का उद्घाटन करने के बाद जब प्रधानमंत्री ने फरीदाबाद में जनसभा को संबोधित करते हुए एलान किया कि उनकी सरकार सैनिकों के हितों को लेकर प्रतिबद्ध है और समान रैंक समान पेंशन में स्वैच्छिक अवकाश जैसी कोई अड़चन नहीं आएगी, इसका लाभ नीचे से लेकर ऊपर तक सभी सेवानिवृत्त सैनिकों को मिलेगा, तो आमरण अनशन कर रहे पूर्व सैनिकों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए अनशन तोड़ दिया।
यह अनशन समाप्त होने के बाद सरकार ने जरूर कुछ राहत की सांस ली है और वह इसका श्रेय भी ले सकती है कि भाजपा ने चुनाव से पहले जो वादे किए थे, उनमें से एक बड़ा वादा उसने पूरा कर दिया है। मगर अड़चनें अभी दूर होती नजर नहीं आ रहीं। इस फैसले से सरकार के ऊपर कम से कम दस हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है, जिसे जुटाना खासा कठिन काम होगा। राजकोषीय घाटे से जूझ रही सरकार पर सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अलावा यह अलग बोझ होगा। फिर बीस साल का सेवाकाल पूरा करने वाले सेनाधिकारियों की विशेष प्रोन्नति जैसी पूर्व सैनिकों की दूसरी कई मांगों का दबाव अभी उस पर से खत्म नहीं हुआ है। उन्हें सुलझाने के रास्ते में कई दिक्कतें पेश आ सकती हैं। फिर इस बात को लेकर भी अभी आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि पूर्व सैनिकों के भीतर से ही कुछ असंतुष्ट गुट नहीं उभरेंगे। यह भी कि पूर्व सैनिकों को दी जाने वाली सुविधाओं के मद्देनजर दूसरे सुरक्षा बलों की तरफ से इसी तरह की मांग नहीं उठेगी। समान रैंक समान पेंशन योजना का फैसला निस्संदेह ऐतिहासिक कहा जा सकता है, पर इसके व्यावहारिक पहलुओं को वह किस तरह साध पाती है, देखने की बात होगी।
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