सोमवार को अफगानिस्तान में हुए कई धमाकों में दो भारतीय और चौदह नेपाली नागरिकों समेत पच्चीस लोग मारे गए। अफगानिस्तान में इस तरह की आतंकी घटनाएं कोई नहीं बात नहीं हैं। दुनिया जानती है कि इनके पीछे किनका हाथ रहता है। पर तालिबान ने जिम्मेदारी लेकर खुद बता दिया कि इन धमाकों को उसी ने अंजाम दिया। गौरतलब है कि ये हमले रमजान के महीने में हुए, जिसे मुसलिम समुदाय सबसे पवित्र महीना मानता है। अनेक मुसलिम धर्मगुरुओं ने तालिबान से अपील की थी कि वह रमजान के महीने में खून-खराबे का कोई कांड न करे। पर तालिबान नहीं माना। इस तरह उसने बता दिया कि वह लोगों की मजहबी भावनाओं की कितनी कद्र करता है। दरअसल, उसके लिए मजहब सिर्फ अपनी गिरोहबंदी के लिए इस्तेमाल की चीज है, ताकि वह अपनी हिंसा को जिहाद कहने का बहाना तलाश सके। स्वाभाविक ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति समेत विश्व भर के नेताओं ने सोमवार को हुए हमलों की निंदा की है। पर उन्हें तालिबान से निपटने के अधिक कारगर तरीकों तथा अफगानिस्तान के सुरक्षा तंत्र को और मजबूत बनाने के उपायों पर भी सोचना होगा।
मारे गए भारतीय और नेपाली नागरिक काबुल स्थित कनाडाई दूतावास के सुरक्षाकर्मी के तौर पर काम करते थे। इस तरह यह हमला अफगानिस्तान में काम कर रहे नेपाली और भारतीय नागरिकों में खौफ पैदा करने के साथ-साथ पश्चिमी देशों को निशाना बनाने की अफगानिस्तान की पहले से चली आ रही फितरत की ही ताजा कड़ी है। इससे यह भी जाहिर है कि तालिबान की ताकत खत्म नहीं हुई है। मुल्ला उमर के जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। बल्कि अमेरिका की इस घोषणा के बाद, कि तालिबान के खिलाफ हवाई हमले करने का उसे अधिकार है, तालिबान की आतंकी हरकतों में तेजी आई हुई दिखती है।
यों अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ने अपना मिशन दिसंबर 2014 में समेट लिया, पर तेरह हजार नाटो सैनिक प्रशिक्षण व आतंकवाद से मुकाबले के तकाजे से अब भी अफगानिस्तान में तैनात हैं। पर उनकी मौजूदगी के बावजूद तालिबान का फिर से उभार दिखता है, जो गहरी चिंता का विषय है। नाटो सैनिक न वहां की भाषा समझते हैं न वहां के भूगोल से वाकिफ हैं। अफगान सुरक्षा बलों की भागीदारी के बिना वे खास कुछ नहीं कर सकते। पर नाटो के दबाव में तालिबान को तलाशने के लिए निगरानी चौकियों पर अफगान पुलिस की तैनाती घटा दी गई। इससे फायदा होना तो दूर, उलटे तालिबान का खतरा और बढ़ गया दिखता है।
उसके साथ आइएस की साझेदारी भी दिख रही है। अप्रैल के शुरू से ही तालिबान के हमलों में तेजी आई दिखती है जिनमें सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है। तालिबानी हुकूमत के खात्मे के बाद भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण व विकास में हाथ बंटाने का फैसला किया। तब से वहां की विभिन्न परियोजनाओं में सैकड़ों भारतीय काम कर रहे हैं। ताजा वारदात से पहले भी, जब-तब तालिबान के हमलों में कई भारतीयों की भी जान गई है। ऐसी घटनाओं के चलते, अफगानिस्तान को मदद करने का भारत का संकल्प तो प्रभावित नहीं होगा, पर यह उसके लिए चिंता का विषय जरूर है। बाकी दुनिया के लिए भी।