अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह वाहवाही बटोरी वह अभूतपूर्व है। पैंतालीस मिनट के उनके भाषण में साठ से अधिक बार तालियां बजीं। जाहिर है, अमेरिकी संसद में पूरे समय मोदी का जादू तारी रहा। यह भारत-अमेरिका संबंधों के प्रगाढ़ होने का सबूत भी है। मोदी ने अपने भाषण के दौरान बार-बार साझीदारी शब्द का प्रयोग किया। हालांकि उन्होंने आतंकवाद, असहिष्णुता, धार्मिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी आदि विषयों पर भारत का पक्ष रखा, पर सबसे अहम बात भारत-अमेरिका साझीदारी पर केंद्रित रही। पिछले दो सालों में यह मोदी की चौथी आधिकारिक अमेरिका यात्रा थी। भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में सदस्यता हासिल करने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए पहले ही अमेरिका और कई महत्त्वपूर्ण देशों का उसे समर्थन प्राप्त है। प्रधानमंत्री की इस यात्रा का मकसद मुख्य रूप से आणविक जरूरतें पूरी करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से सहमति हासिल करना है। वे इस मकसद में काफी हद तक कामयाब भी हुए हैं। इस यात्रा के दौरान भारत को मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम यानी एमटीसीआर में जगह मिलने का रास्ता साफ हुआ है। इसके बाद उसे अमेरिका से ड्रोन तकनीक आसानी से मिल सकेगी।
साथ ही भारत छोटे स्तर की मिसाइलों का निर्यात कर सकेगा। इससे भारत की एनएसजी सदस्यता की दावेदारी भी आसान हुई है। हालांकि यूपीए सरकार के समय ही अमेरिका के साथ भारत का परमाणु करार हुआ था और उसी आधार पर भारत को यूरेनियम वगैरह मिलना शुरू हो गया था, पर अब बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी की पिछले दो सालों में हुई करीब सात बार की मुलाकातों में न सिर्फ दोनों देशों के रिश्ते प्रगाढ़ हुए हैं, बल्कि बराक ओबामा प्रशासन का भारत पर भरोसा भी बढ़ा है। इसलिए शायद उनके कार्यकाल में ही भारत की आणविक जरूरतों को पूरा करने में आने वाली अड़चनों को दूर कर लिया जाए।
अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी की बड़ी वजह यह भी है कि एशिया में दोनों देशों की चिंताएं लगभग समान हैं। आतंकवाद पर नकेल कसना तो अहम मुद्दा है ही, चीन की विस्तारवादी नीतियों पर काबू पाना भी जरूरी है। चीन पाकिस्तान को अपने करीब लाकर एशिया में अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है।
वहां उसने अपने परमाणु रिएक्टर लगाए हैं। इसलिए वह नहीं चाहता कि भारत को एनएसजी में जगह मिले। उसका तर्क है कि अगर भारत को सदस्य बनाया जा रहा है तो पाकिस्तान को भी बनाया जाना चाहिए। मगर परमाणु उपयोग और आतंकवाद से निपटने में पाकिस्तान का रिकार्ड काफी खराब रहा है। एशिया में आतंकवाद को लेकर चीन का रुख भी सकारात्मक नहीं है। ऐसे में अमेरिका को लगता है कि भारत के साथ मिल कर वह इन मोर्चों पर कामयाबी हासिल कर सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा अमेरिका यात्रा की उपलब्धियों से स्वाभाविक ही चीन और पाकिस्तान के माथे पर शिकन उभरी है। मोदी ने अमेरिकी संसद में पाकिस्तान का नाम लिए बगैर आतंकवाद के मसले पर जिस तरह खरी-खरी बातें कहीं और अमेरिका ने भी पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया, वह पाकिस्तान को असहज करने वाला है। मोदी ने चीन सागर में चीन की दावेदारी के मुद्दे पर कोई बात नहीं की, यह उनकी रणनीति का हिस्सा था। इससे एनएसजी में भारत की दावेदारी पर चीन की चिढ़ और बढ़ जाती। मोदी की इस यात्रा को उपलब्धियों भरी कहा जा सकता है।