यह माना जा रहा था कि किसानों की खुदकुशी का सिलसिला अगर थमा नहीं, तो काफी धीमा जरूर पड़ गया है। लेकिन इस धारणा पर सवालिया निशान लग गया है। किसानों की आत्महत्या के चलते कई बार सुर्खियों में आ चुके विदर्भ ने एक बार फिर इसी वजह से देश का ध्यान खींचा है। महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में महज बहत्तर घंटों में बारह किसानों के आत्महत्या करने की खबर आई है। संयोग से राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस विदर्भ से ताल्लुक रखते हैं। वे कह सकते हैं कि यह त्रासदी काफी समय से जारी है और सरकार की बागडोर संभाले उन्हें अभी थोड़ा ही समय हुआ है। लेकिन विदर्भ और मराठवाड़ा में किसानों की आत्महत्या के मामले हाल में इससे पहले भी सामने आए थे। अब तक राहत के कौन-से आपातकालीन कदम उठाए गए? पिछले दिनों केंद्र को सौंपी गई खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के अलावा तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब में भी किसानों के खुदकुशी के मामले बढ़े हैं, वहीं गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में भी ऐसी कुछ घटनाएं दर्ज की गई हैं।

ब्यूरो ने ऐसी घटनाओं का ब्योरा देने के साथ ही उनके कारण भी तलाशे हैं, और इस लिहाज से उसकी रिपोर्ट समस्या का काफी हद तक एक सटीक अध्ययन भी है। यह रिपोर्ट बताती है कि किसानों की खुदकुशी के पीछे सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे फौरी कारण तो हैं ही, पर दूसरे आयाम भी हैं जिन्हें कुदरती नहीं कहा जा सकता। किसानों पर कर्ज के बोझ, उन्हें पैदावार का वाजिब दाम न मिलने और कर नीति की विसंगतियों से लेकर आयात-निर्यात के गलत फैसलों तक, रिपोर्ट ने संकट के अनेक कारण गिनाए हैं। भूजल का भंडार खाली होते जाने को भी रिपोर्ट ने किसानों की मुसीबत के एक बड़े सबब के रूप में चिह्नित किया है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि रियायती कृषिऋण और कर्जमाफी जैसे राहत के कदमों की एक तात्कालिक और सीमित उपयोगिता ही है, संकट का टिकाऊ समाधान तो खेती को पुसाने लायक बना कर ही किया जा सकता है। विडंबना यह है कि किसानों की हालत को लेकर केंद्र को सौंपी गई आइबी की रिपोर्ट में तो समझ और संवेदनशीलता दिखती है, पर सरकारों और राजनीतिकों के सोच में यह नदारद है। अकोला से भाजपा के सांसद संजय धोत्रे ने पिछले दिनों अपने निर्वाचन क्षेत्र में आयोजित कृषि प्रदर्शनी के तहत हुई एक परिचर्चा में बोलते हुए कहा कि किसान मर रहे हैं, तो उन्हें मरने दें। इस मौके पर महाराष्ट्र के राजस्वमंत्री एकनाथ खडसे भी मौजूद थे।

धोत्रे के बयान पर विवाद खड़ा हुआ, तो उन्होंने कहा कि उनकी बात को संदर्भ से काट कर पेश किया गया है। इस सफाई को ध्यान में रख कर उनके विवादित वाक्य को छोड़ दें। उनकी दूसरी बात को लें, जिसमें उन्होंने कहा कि जो लोग खेती का खर्च उठा सकेंगे, वही इसे करेंगे, जो नहीं उठा सकेंगे वे बाहर हो जाएंगे। धोत्रे ऐसा सोचने वाले अकेले विशिष्ट व्यक्ति नहीं हैं। जो लोग अनुबंध आधारित खेती की वकालत करते हैं और मानते हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रवेश से ही कृषि क्षेत्र का उद्धार होगा, इस तरह की दलील देते रहते हैं। शायद यह भी एक खास कारण हो कि पिछले दो दशक में दो लाख से ज्यादा किसानों के खुदकुशी करने के बाद भी हमारे राज्यतंत्र और नीति-निर्माण तंत्र में चिंता की लहर नहीं दिखती, जबकि विकास दर, यहां तक कि शेयर बाजार के भी आए दिन के उतार-चढ़ाव से उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं। जहां कृषि-संकट में बाजार के लिए मौके ढूंढ़े जा रहे हों, वहां यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थम जाएगा!

 

 

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