मोदी सरकार ने जिस उत्साह के साथ विकास के मुद्दे को उठाया था, अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद आदि के घर वापसी अभियान ने उस पर पानी फेरना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है कि धर्मांतरण रोकने को लेकर उनकी सरकार क्या करने जा रही है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जरूर विकास में बांधा पहुंचाने का ठीकरा विपक्ष के माथे फोड़ते हुए कहा है कि अगर वह सहयोग करे तो सरकार धर्मांतरण रोकने से संबंधित कानून बनाने को तैयार है। संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने भी आम सहमति से इस मसले पर कानून बनाने की बात कही है। मगर इन दोनों नेताओं के बयान भ्रामक हैं। सवाल है कि जब लोकसभा में भाजपा को बहुमत हासिल है तो वह राज्यसभा में विपक्ष के हंगामे को क्यों तूल दे रही है। अगर लोकसभा में धर्मांतरण रोकने का कानून लाने की पहल होती तो राज्यसभा में हंगामा ही क्यों होता। फिर यह भी कि प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर स्थिति स्पष्ट करने से क्यों बचते रहे। हालांकि यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। साल भर पहले खुद नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जो दूसरे लोग करते हैं वह धर्मांतरण है और जो हिंदू करते हैं वह घर वापसी है। यह भी छिपी बात नहीं है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पसंद से ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे हैं। ऐसे में संघ की गतिविधियों पर कानूनी लगाम लगाना उनके लिए संभव नहीं रह गया है। स्वाभाविक ही वे संसद में इस पर कुछ बोलने से बच रहे हैं। यह एक प्रकार से इस अभियान को उनकी मौन सहमति ही कही जा सकती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंहल और प्रवीण तोगड़िया जिस तरह जगह-जगह सभाएं कर मुसलमानों और ईसाइयों को झगड़े की जड़ बताते हुए पूरे देश को हिंदू आबादी में बदल देने की घोषणा कर रहे हैं, वह किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। मगर मोदी सरकार भाजपा के आनुषंगिक संगठनों के साथ संतुलन बिठाने में लगी हुई है। संसद में हंगामे के चलते बीमा और कोयला संबंधी महत्त्वपूर्ण विधेयक लटक गए हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी की विकास संबंधी नीतियों के ठंडी पड़ जाने का खतरा पैदा हो गया है। हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब संघ के दबावों और अपने एजेंडे पर आक्रामक रुख अख्तियार कर लेने के चलते सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हुई हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय भी संघ की गतिविधियों के चलते परेशानियां बढ़ गई थीं। तब वाजपेयी ने खुद को संघ के दबावों से मुक्त कर विकास संबंधी नीतियों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। मगर नरेंद्र मोदी में वैसा साहस नहीं है। सुषमा स्वराज जैसे इक्के-दुक्के नेता, जो सीधे संघ की जकड़बंदी में नहीं हैं, वे कुछ उदार रुख अपनाए जरूर दिख रहे हैं। नरेंद्र मोदी अगर सरकार और संघ के सिद्धांतों को अलग रख कर चलना चाहते तो सब कुछ जानते-समझते संघ के कहने पर कट्टर हिंदुत्ववादी गिरिराज सिंह और निरंजन ज्योति को मंत्रिमंडल में न शामिल करते। पाठ्यपुस्तकों और विद्यालयों में हिंदुत्ववादी विचारधारा को बढ़ावा देने वाले पाठ और कार्यक्रमों को न थोपा जाता। अगर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि उन्हें मिले जनादेश के पीछे हिंदुत्व की भावना है तो उन्हें इससे बाहर निकलने की जरूरत है। धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक आश्वासन देने वाले देश में सामाजिक विद्वेष के बीज बोकर विकास की फसल उगाना संभव नहीं हो सकता।

 

 

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