संविधान में अध्यादेश का प्रावधान आपातकालीन जरूरत के लिए है। लेकिन मोदी सरकार ने अध्यादेशों की झड़ी लगा दी है। यह संसद की अवहेलना है। इसलिए सरकार के इस रवैए पर संविधानविदों ने भी एतराज जताया है। विडंबना यह है कि यूपीए सरकार ने जब भी अध्यादेश की शरण ली, भाजपा ने उसका पुरजोर विरोध किया था। लेकिन अब वैसा ही करते हुए उसे तनिक संकोच नहीं है। बल्कि इस मामले में उसने और तेजी दिखाई है। पिछली सरकार ने पांच साल में पच्चीस अध्यादेश जारी किए थे, यानी औसतन एक साल में पांच। जबकि मोदी सरकार सात महीने में ही छह अध्यादेश ला चुकी है। उसने शुरुआत ही अध्यादेश से की। पहला अध्यादेश ट्राइ के नियमों में संशोधन के लिए लाया गया, ताकि प्रधानमंत्री अपनी पसंद का प्रधान सचिव नियुक्त कर सकें। उसी समय, तेलंगाना राष्ट्र समिति के सांसदों के विरोध के बावजूद लाए गए दूसरे अध्यादेश के जरिए तेलंगाना राज्य पुनर्गठन कानून में संशोधन कर दिया गया, ताकि पोलावरम परियोजना के तहत विस्थापन का दायरा बढ़ाया जा सके। पिछले हफ्ते अध्यादेश लाकर बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद कर दी गई। इसी के साथ लाया गया एक और अध्यादेश कोयला खदानों की नीलामी से संबंधित था।
अध्यादेश लाने पर हुई चौतरफा आलोचना की परवाह न करते हुए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए भी वही रास्ता अख्तियार किया। इसी के साथ एक और अध्यादेश के जरिए चुनावी गरज से दिल्ली की आठ सौ पंचानवे अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने की घोषणा की गई। साल भर पहले खाद्य सुरक्षा अध्यादेश पर बहस के दौरान अरुण जेटली ने कहा था कि अध्यादेश विधायी शक्तियों का अपमान है। लगता है वह अब अपनी ही उस बात को भूल गए हैं, या उसे याद नहीं करना चाहते? पूछा जाना चाहिए कि अब विधायी शक्तियों का अपमान कौन कर रहा है? बीमा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा बढ़ाने और कोयला खदानों से संबंधित विधेयक संसद में पेश किए जा चुके हैं, राज्यसभा की प्रवर समिति उन पर अपनी सिफारिशें भी दे चुकी है। एक समय संसद के अगले सत्र का इंतजार करने की नसीहत देने वालों को न तो अब संसद में लंबित विधेयकों की जगह अध्यादेश लाने में कुछ गलत दिखता है न संसद से पारित कानूनों को अध्यादेश के जरिए बदलने में। भूमि अधिग्रहण कानून संसद में व्यापक विचार-विमर्श के बाद पारित हुआ था। तब यूपीए सरकार जो कानून लाने जा रही थी, भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने उससे भी सख्त प्रावधान सुझाए थे। मगर मोदी सरकार अब खुद भाजपा की तरफ से दिए गए सुझावों से उलट व्यवहार कर रही है! इसलिए कि कॉरपोरेट जगत चाहता है कि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान कर दी जाए। लेकिन इस सिलसिले में किसानों की राय लेना क्यों जरूरी नहीं समझा गया?
पुराने कानून की जगह नया भूमि अधिग्रहण कानून बना तो इसके पीछे राजनीतिक आम सहमति के साथ-साथ किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों का भी दबाव था। मगर उस प्रक्रिया की तार्किक परिणति को एक झटके में पलट दिया गया है, वह भी विधायी तरीके से नहीं, पिछले दरवाजे से। अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण कानून को किस हद तक तोड़ा-मरोड़ा गया है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब बहुफसली जमीन भी अधिग्रहीत की जा सकेगी। जबकि देश में खेती का रकबा लगातार कम होता गया है। खनन क्षेत्र से संबंधित एक और अध्यादेश संभावित है। अगर बाजार-केंद्रित सुधारों और उद्योग जगत को खुश करने के लिए अध्यादेश लाए जाएंगे, तो फिर इस सिलसिले के और बढ़ने का ही अंदेशा है।
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