वे अपनी रचनाओं में जीवन के द्वंद्व, समाज के अंधेरे कोनों और संस्कृति के उजले पक्षों को उकेरते-उभारते रहे। कैलाश वाजपेयी ने जिस समय लिखना शुरू किया, वह मोहभंग का दौर था। आजादी मिलने के बाद सत्ता से जो उम्मीदें थीं, वे धुंधली पड़ने लगी थीं। इस तरह चौतरफा असंतोष का माहौल था। कैलाश वाजपेयी की कविताओं में भी वही भाव प्रकट हुए। एक तरह का अलगाव और अंधेरापन सब तरफ व्याप्त था, उसमें कैलाश वाजपेयी की नाराजगी जाहिर थी। कथ्य के स्तर पर सीधे-सीधे स्थितियों को उभारना और साफगोई से अनुभवों को व्यक्त कर देना कैलाश वाजपेयी की शुरुआती कविताओं की प्रकृति है। वे खुद स्वीकार करते थे कि उनकी आरंभिक रचनाओं का मुख्य स्वर प्रतिरोध है।
उनकी ‘राजधानी’ कविता की इन पंक्तियों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनमें तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल को लेकर किस हद तक नाराजगी थी: ‘शिला की तरह गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश’। उनके पहले तीन संग्रहों- ‘संक्रांत’, ‘देहांत से हट कर’ और ‘तीसरा अंधेरा’ की कविताओं का स्वर लगभग यही है। इसके बाद उनका स्वर बदला, जब कैलाश वाजपेयी ने श्रीअरविंद पर वृत्तचित्र के लिए शोध शुरू किया। सत्तर के दशक में। उनके संग्रह ‘महास्वप्न का मध्यांतर’ की कविताएं प्रारंभिक संग्रहों से बिल्कुल अलग हैं। यहां से कैलाश वाजपेयी भारतीय और विश्व दर्शन, पौराणिक आख्यानों, मिथकीय चरित्रों की तरफ लौटते हैं। मृत्यु पर चिंतन करते, मनुष्य के अस्तित्व और उसकी सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियों को विभिन्न कोणों से देखने-परखने की कोशिश करते हैं। चेतन और अवचेतन मन से संवाद करते हैं। इस तरह उनकी कविताओं में दार्शनिक और आध्यात्मिक आभा दीप्त होती है।
हालांकि कैलाश वाजपेयी मूल रूप से कवि थे, पर उन्होंने कविता, भारतीय संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, संत साहित्य, उपनिषद, पुराण, ज्योतिष, वैदिक मंत्रों के पीछे के विज्ञान आदि पर भी भरपूर रचा-लिखा। भारतीय मनीषा को वे बार-बार पाश्चात्य दर्शन और सिद्धांतों के बरक्स रख कर जांचते-परखते रहे। उन्होंने दुनिया के अनेक देशों की यात्राएं कीं, वहां की संस्कृतियों का अध्ययन किया, भारतीय कविता को उन देशों की काव्य-संवेदना के साथ तौलते-मूल्यांकित करते रहे। यात्रा संस्मरणों के जरिए भी वे संस्कृति विमर्श में मुब्तिला रहे। भारतीय दर्शन और संस्कृति के विभिन्न आयामों को लेकर जितना कैलाश वाजपेयी ने लिखा उतना शायद ही किसी दूसरे हिंदी रचनाकार ने लिखा हो। इसके अलावा उन्होंने दूरदर्शन के लिए कबीर, स्वामी हरिदास, सूरदास, जे कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण परमहंस और बुद्ध के जीवन दर्शन पर वृत्तचित्रों का निर्माण किया।
हालांकि इसके चलते कुछ लोग उनके लेखन को अध्यात्म और तत्त्वचिंतन के खाते में डाल देने की कोशिश करते हैं, पर हकीकत यह है कि इस तरह कैलाश वाजपेयी ने भारतीय परंपरा और संस्कृति को नई दृष्टि से देखने-व्याख्यायित करने का प्रयास किया। अपनी संस्कृति से नए ढंग से संवाद स्थापित करने की युक्ति पेश की। उनका चिंतन किसी जड़ विचारधारा में जकड़ा या किसी संकरे दायरे में सिमटा हुआ नहीं था। वे वैश्विक संस्कृति को बगल रख कर, आधुनिकता के रूढ़ हो चले प्रतिमानों की तुला पर भारतीय संस्कृति और मूल्यों को हमेशा पारखी नजर से देखते रहे। इसलिए उनके यहां विदेशी चिंतन की आवाजाही बहुत है। पर उनकी कविता दर्शन से बोझिल कभी नहीं होने पाई। खुली-खिली, सहज भाषा का प्रवाह और लयात्मकता उसमें सदा बनी रही। साहित्य अकादेमी ने उन्हें कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए सम्मानित किया। इसके अलावा बिड़ला फाउंडेशन और हिंदी अकादमी ने अपने महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया। उनका न रहना समकालीन कविता की एक सशक्त कड़ी का टूट जाना है।
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