जहां सरकारी अस्पतालों में अव्यवस्था और अनुशासनहीनता आम बात है, वहीं निजी अस्पतालों की बाबत अनावश्यक जांच के लिए कहने से लेकर ज्यादा भुगतान वसूलने तक अनेक तरह की शिकायतें आती रहती हैं। डॉक्टरों से संबंधित आचार संहिता भारतीय चिकित्सा परिषद ने बहुत पहले से बना रखी है, पर निजी क्षेत्र के अस्पताल और नर्सिंग होम उसके नियमन के दायरे में नहीं आते। उनके लिए व्यापक दिशा-निर्देश तैयार करने की पहल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने की है, जो स्वागत-योग्य है। एक ऐसा क्षेत्र जो सबसे ज्यादा मानवीय आयाम लिए हुए हो, सिर्फ व्यवसाय या बाजार के हितों से संचालित नहीं होना चाहिए। दुनिया भर में इस दृष्टिकोण को मान्यता मिली हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिकित्सा संहिता बनाने की पहल 1964 में हुई, जब हेलंसिकी घोषणापत्र जारी हुआ। इसे कई बार संशोधित किया गया और नवीनतम अंतरराष्ट्रीय संहिता को वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन ने अक्तूबर 2008 में सियोल में हुए अपने सम्मेलन में मंजूरी दी।
इस प्रक्रिया में भारत भी शामिल था। पर सियोल संहिता के उल्लंघन की घटनाएं अपने देश में बहुतायत में होती हैं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण क्लिनिकल ट्रायल यानी चिकित्सीय परीक्षणों के दौरान होने वाली मौतें, और ऐसे मामलों में मुआवजे के मानकों का पालन न किया जाना है। भारतीय चिकित्सा परिषद की ओर से तय किए गए नियम-कायदों की अनदेखी के भी जाने कितने मामले सामने आते हैं। इनके मद््देनजर अपेक्षित कार्रवाई अपवादस्वरूप ही हो पाती है। दरअसल, अधिकतर मरीज और उनके परिजन नहीं जानते कि वे अपनी शिकायतों को तार्कि क अंजाम तक कैसे पहुंचाएं। बहुतों के लिए इसकी हिम्मत जुटाना भी मुश्किल है। ऐसे में, आइएमए के नए निर्देशों का असर कहां तक होगा इस बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना जल्दबाजी होगी। पिछले दिनों आइएमए ने जिस घोषणापत्र को मंजूरी दी, वह इस बात की सख्त ताकीद करता है कि अस्पताल और नर्सिंग होम दवाओं और उपकरणों के आपूर्तिकर्ताओं से महंगे उपहार या नकद राशि न लें, किसी पर बेजा मेहरबानी न दिखाएं, मरीजों की गैर-जरूरी भर्ती न करें, चिकित्सा-बीमा के मामलों में अतिरंजित दावे न करें, आदि। आइएमए ने फिलहाल एक नीति-वक्तव्य जारी किया है, विधिवत दिशा-निर्देश तीन महीने में तय हो जाएंगे। अस्पतालों और नर्सिंग होमों के लिए इसे अपने यहां सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना अनिवार्य होगा।
देर से ही सही, आएएमए ने एक जरूरी कदम उठाया है। पर जब तक चिकित्सा क्षेत्र की सारी कड़ियों पर कड़ी नजर नहीं रखी जाएगी, ठोस परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती। कहने को अपना देश दवा उद्योग के क्षेत्र में अग्रणी है, पर यहां दवा की लागत और बिक्री-मूल्य में जितना बड़ा फासला है, वैसा दुनिया में शायद ही कहीं हो। कई दवाएं तो लागत से कई सौ गुना कीमत पर बेची जाती हैं। बेशक, इसके लिए न आइएमसी को दोषी ठहराया जा सकता है न आइएमए को, क्योंकि दवाओं की कीमत का मामला दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण के तहत आता है। मोदी सरकार ने प्राधिकरण के पर कतर दिए हैं। सरकार ने घोषणा की हुई है कि अगले वित्तवर्ष में इलाज की सुविधा को एक बुनियादी नागरिक अधिकार बनाया जाएगा। दूसरी ओर, स्वास्थ्य के मद में सरकारी बजट में बीस फीसद की कटौती कर दी गई है। नियामक संस्थाओं के सख्त दिशा-निर्देशों के साथ-साथ सरकार की स्वास्थ्य नीति का भी जनोन्मुखी होना जरूरी है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta