देश या राज्य स्तर पर होने वाले किसी चुनाव के पहले कुछ नेताओं का अपनी पार्टी को छोड़ना और अन्य दल में शामिल होना अब आम हो चुका है। इसमें इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि उस नेता को अपने क्षेत्र की जनता का समर्थन किन आधारों पर मिला था और उस भरोसे में पार्टी की विचारधारा की क्या जगह है। यह एक तरह से अपने सामने आए अवसरों को देख कर अपनी निष्ठा को दरकिनार करने जैसा होता है, लेकिन लोकतंत्र में दल बदलने को एक आम प्रक्रिया के तहत देखा जाता है।
इसके बावजूद यह सच है कि चुनाव के मौके पर पार्टियों को छोड़ने की गतिविधियों का मकसद मुख्य रूप से अवसरों का लाभ उठाना होता है। पश्चिम बंगाल में भावी चुनावों के पहले सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के नेता जिस तरह एक-एक कर पार्टी छोड़ रहे या पदों से इस्तीफा दे रहे हैं, उसे इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
शुक्रवार को राज्य सरकार में वन राज्यमंत्री राजीब बनर्जी ने अपना विभाग बदलने के तरीके से नाराज होकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उन्होंने सभी लोगों को धन्यवाद देते हुए कहा कि राज्य के लोगों की सेवा करना उनके लिए गर्व देने वाला अनुभव रहा। लेकिन अगर उनका अनुभव अच्छा रहा तो उनके सामने आखिर इस्तीफा देने की नौबत क्यों आई!
पिछले महीने राजीब बनर्जी ने अपनी ही सरकार को भ्रष्ट और बेईमान कहा था। तभी से इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि दूसरे कुछ नेताओं की तरह संभवत: वे भी अब पार्टी में कुछ वक्त के मेहमान हैं।
गौरतलब है कि अब तक तृणमूल कांग्रेस के कई अहम नेताओं का बागी रुख सामने आ चुका है। एक बड़े नेता शुभेंदु अधिकारी जहां तृणमूल से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम चुके हैं, वहीं लक्ष्मी रत्न शुक्ला ने भी मंत्री पद छोड़ दिया था। फिर इसी पार्टी के विधायक अरिंदम भट्टाचार्य भी अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इन नेताओं का आम आरोप है कि पार्टी और सरकार में उन्हें आजादी से काम नहीं करने दिया जा रहा था। इनका यह भी मानना है कि ममता बनर्जी की पार्टी के पास राज्य के युवाओं के लिए कोई दृष्टिकोण नहीं है।
संभव है ये आरोप सही हों। मगर सवाल है कि इन नेताओं को समूचा कार्यकाल निभा लेने के बाद अब जाकर चुनावों के समय ये सब कमियां क्यों नजर आने लगीं! क्या यह भाजपा के उभार का असर है? फिर इस पहलू को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि तृणमूल कांग्रेस अपने उन नेताओं को ऐन वक्त पर संभाल कर नहीं रख पा रही है, जिन्होंने पार्टी के लिए सालों काम किया।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों की आधिकारिक घोषणा अभी नहीं हुई है, लेकिन इससे पहले ही वहां जिस पैमाने पर राजनीतिक गतिविधियां शुरू हो चुकी हैं, उससे साफ है कि इस बार का चुनाव ज्यादा चुनौतियों से भरा साबित हो सकता है। यों फिलहाल तृणमूल कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों और कांग्रेस के गठजोड़ के समांतर तीसरे ध्रुव के रूप में भाजपा जिस रूप में खुद को दर्ज कर रही है, वह खासतौर पर सत्ताधारी दल के लिए चिंता का कारण बन रहा है।
हालत यह है कि जनता का समर्थन हासिल करने के लिए आजमाए जाने वाले तौर-तरीकों के बीच तृणमूल और भाजपा के बीच जैसे टकराव सामने आ रहे हैं, उससे चुनाव अभियानों के शांतिपूर्ण गुजरने को लेकर आशंकाएं खड़ी हो रही हैं। कई जगहों से हिंसक टकराव तक की खबरें आ चुकी हैं। सवाल है कि लोकतांत्रिक माहौल में चुनाव होने के हालात अगर कमजोर होंगे तो इससे किसे कितना फायदा मिल जाएगा!