राजधानी होने के नाते दिल्ली में कानून-व्यवस्था बनाए रखने और नागरिकों की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। यहां आबादी के अनुपात में पुलिस-बल भी दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक है। लेकिन जब भी दिल्ली में अपराधों का लेखा-जोखा होता है, निराश होना पड़ता है। पिछले हफ्ते दिल्ली पुलिस ने जो आकलन पेश किया, उसके मुताबिक स्थिति में सुधार के तमाम वादों के बावजूद न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ अपराध में दोगुनी, बल्कि अमूमन सभी तरह के जुर्म में काफी बढ़ोतरी दर्ज हुई है। हालांकि दिल्ली के पुलिस आयुक्त का मानना है कि आंकड़ों में इतनी वृद्धि की वजह दरअसल यह है कि आपराधिक घटनाओं की शिकायत दर्ज कराने की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया है। लेकिन अगर देश की राजधानी में हर चार घंटे में एक बलात्कार होता है, हर रोज अठारह बच्चे गायब हो रहे हैं और दूसरे अपराधों का भी ग्राफ चढ़ा है, तो क्या यह कानून-व्यवस्था में लापरवाही और अपराधियों के बेखौफ होने का नतीजा नहीं है? इसके लिए आखिर कौन जिम्मेवार है और पुलिस महकमे की ओर से सब कुछ ठीक होने के अक्सर किए जाने वाले दावों का क्या मतलब है? केवल सड़क हादसों में कमी दर्ज हुई है। हत्या, यौनहिंसा, दहेज हत्या, बच्चों के लापता होने, डकैती, लूटपाट, अपरहरण, चोरी आदि तमाम आपराधिक वारदातों में काफी बढ़ोतरी हुई है। यही नहीं, दिल्ली में पिछले कुछ समय से सांप्रदायिक तनाव फैलाने की एक के बाद एक कई घटनाएं हुई हैं। बीते साल अक्तूबर और नवंबर में दिल्ली के खजूरी खास, त्रिलोकपुरी और नंदनगरी सहित कई इलाकों में सांप्रदायिक दंगों की घटनाएं सामने आर्इं, जिनमें सौ से ज्यादा लोग घायल हुए। पुलिस महकमा बहुत सारे मामले सुलझा लेने का दावा कर सकता है। लेकिन क्या कारण है कि एक जगह सांप्रदायिक आग पूरी तरह बुझाई भी नहीं जा सकी कि दूसरी जगह भड़का दी गई। दिल्ली पुलिस को मजबूती से यह संदेश देने की जरूरत है कि सत्ता में कोई भी हो, वह ऐसे मामलों में सख्ती से पेश आएगी।
दिसंबर 2012 में जब दिल्ली में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना सामने आई तो महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर व्यापक जन-आक्रोश पैदा हुआ। इसके दबाव में यौनहिंसा से संबंधित कानून और सख्त किए गए। तब हालात कुछ सुधरने की उम्मीद जगी थी। मगर ताजा आंकड़े सुरक्षा-व्यवस्था और कानूनी उपायों को आईना दिखाते हैं। करीब एक पखवाड़े पहले राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रपट में भी बताया गया था कि आयोग के पास पहुंची शिकायतों में पिछले दो साल के दौरान सौ फीसद बढ़ोतरी हुई। अगर कानून का खौफ और सख्त सजा सुनिश्चित हो तो महिलाओं के खिलाफ होने अपराधों में कमी की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन कानूनी या न्याय-प्रक्रिया की जटिलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बलात्कार के मामलों में सजा की दर महज एक चौथाई है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का एक सामाजिक आयाम भी है, जो कम चिंताजनक नहीं है। ऐसे बहुत सारे अपराधों को अंजाम देने वाले परिचित, रिश्तेदार, पड़ोसी होते हैं। दिल्ली पुलिस की ताजा रिपोर्ट भी इस हकीकत की गवाही देती है। जाहिर है, अपराधों पर काबू पाने की चुनौती कानून-व्यवस्था की खामियों को दूर करने के साथ-साथ समाज सुधार की भी अपेक्षा करती है।
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