यह सही है कि अरुणाचल प्रदेश का मौजूदा राजनीतिक संकट कांग्रेस के कलह से शुरू हुआ, मगर इन स्थितियों में राज्यपाल ने जो व्यवहार किया उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए यह हैरानी की बात नहीं कि वहां के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा का आचरण ही विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा हो गया है। इस मामले में संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस ने तो केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की ही, विपक्ष की दूसरी पार्टियों ने भी उसका साथ दिया। अरुणाचल का मसला गुरुवार को राज्यसभा में छाया रहा। वहां के राज्यपाल को वापस बुलाने की विपक्ष की मांग के चलते सदन की कार्यवाही तीन बार स्थगित करनी पड़ी। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी अरुणाचल के राज्यपाल के रवैए की कड़ी आलोचना की है। अदालत ने राज्यपाल की ओर से नौ दिसंबर को जारी हुई वह अधिसूचना रद्द कर दी, जिसमें विधानसभा का शीतकालीन सत्र बुलाने की तारीख चौदह जनवरी के बजाय सोलह दिसंबर कर दी गई थी।
राज्यपाल की दलील थी कि विशेष परिस्थितियों में सत्र की बैठक पहले बुलाई जा सकती है। लेकिन सत्र बुलाने का निर्णय विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री की सहमति से ही होता आया है। क्या इनकी रजामंदी थी? गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने विधानसभा अध्यक्ष की याचिका पर फैसला सुनाते हुए साफ कहा है कि राज्यपाल ने सत्र बुलाने से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 174 और 175 का उल्लंघन किया। किसी राज्यपाल के आचरण की बाबत अदालत की इससे प्रतिकूल टिप्पणी और क्या हो सकती है! राज्यपाल ने जिस विशेष परिस्थति का तर्क दिया था वह किसी आपातकालीन विधायी जरूरत का नहीं था। कांग्रेस के विधायक दल में फूट पड़ जाने के कारण नबाम टुकी की सरकार का बहुमत सवालों के घेरे में आ गया। लेकिन बहुमत का परीक्षण सदन में ही हो सकता है। अगर विधानसभा अध्यक्ष इसमें सहयोग न करें, या निष्पक्ष न दिखें, तो राज्यपाल दोनों तरफ के विधायकों से राजभवन में मिल कर स्थिति का जायजा ले सकते हैं।
लेकिन राज्यपाल ने न केवल विधानसभा का सत्र बुलाने की पूर्व-निर्धारित तिथि को बदल कर सोलह दिसंबर करने की अधिसूचना जारी कर दी, बल्कि विधानसभा अध्यक्ष पर महाभियोग चलाने की मंजूरी भी दे दी। विधानसभा के अध्यक्ष कांग्रेस खेमे में हैं तो उपाध्यक्ष कांग्रेस के बागी खेमे के साथ। अध्यक्ष ने चौदह विधायकों की सदस्यता निलंबित कर दी थी। इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों के निलंबन से अल्पमत में आ जाने का कांग्रेस का डर ही जाहिर होता है। पर विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय को उचित प्रक्रिया से चुनौती दिए जाने के बजाय हुआ यह कि उपाध्यक्ष ने उन विधायकों की सदस्यता बहाल कर दी। बहुमत की जोड़-तोड़ के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है?
उच्च न्यायालय ने उपाध्यक्ष के इस निर्णय को भी गलत ठहराया है। अरुणाचल प्रदेश की साठ सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के सैंतालीस विधायकों में से बीस ने बगावत का झंडा उठा रखा है। कांग्रेस के बागी खेमे ने मुख्यमंत्री नबाम टुकी के खिलाफ पहले अविश्वास प्रस्ताव पारित किया और फिर भाजपा के ग्यारह और दो निर्दलीय विधायकों के साथ मिल कर कांग्रेस के एक बागी विधायक केलिखो पूल को ‘नया मुख्यमंत्री’ चुन लिया। लेकिन राज्यपाल की उतावली और संवैधानिक प्रक्रिया तथा परिपाटी से हट कर उठाए गए कदम ने कांग्रेस के बागी खेमे और भाजपा को ही नुकसान पहुंचाया है। राज्य का आगे का राजनीतिक घटनाक्रम चाहे जिस पटरी पर जाए, राज्यपाल के किए का बचाव करना केंद्र के लिए आसान नहीं होगा।